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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/११०

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निबंध-रत्नावली

व्यम्बकं यजामहे सुगंधिं पतिवेदनम ।
उर्वारुकमिव बंधनादितो मुक्षीयमामुतः । शु० यजु०

"आओ, आज हम सब मिलकर अपने पतिवेदन उस त्रिकाल-दर्शी सुगंधित पुरुष का यज्ञ करें जिससे, जैसे दाना पकने पर अपने छिलके से अलग हो जाता है, वैसे ही हम इस घर के बंधनाे से छूटकर अपने पति के अटल राज को प्राप्त हों।"

प्राचीन वैदिक काल में युवती कुवारी लड़किया यज्ञाग्नि की परिक्रमा करती हुई ऊपर की प्रार्थना ईश्वर के सिंहासन तक पहुँचाया करती थीं।

हर एक देश में यह बिछोड़ा भिन्न भिन्न प्रकार से होता है। परंतु इस बिछोड़े में त्याग-अंश नजर आता है। याेरप में आदि काल से ऐसा रवाज चला आया है कि एक युवती कन्या किसी वीर, शुद्धहृदय और सोहने नौजवान को अपना दिल चुपके चुपके पेड़ों की आड़ में, या नदी के तट पर, या वन के किसी सुनसान स्थान में, दे देती है। अपने दिल को हार देती है मानाे अपने हृत्कमल को अपने प्यारे पर चढ़ा देती है; अपने आपका त्याग कर वह अपने प्यारे में लीन हो जाती है। वाह ! प्यारी कन्या तून तो जीवन के खेल को हारकर जीत लिया। तेरी इस हार की सदा संसार में जीत ही रहेगी। उस नौजवान को तू प्रेम-मय कर देती है। एक अद्भुत प्रेमयोग से उसे अपना कर लेती है। उसके प्राण की रानी हो जाती है। देखो! वह नौजवान दिन-रात इस धुन में है कि