सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/२९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५४
निबंध-रत्नावली

मिला। वह परम प्राकृत और सूक्ति-रत्नों का सागर कह- निबंध-रत्ला। वह परम प्राकृत और सूक्ति-रत्नों का सागर कह- लाई । राजाओं ने उसको कदर की । हाल (सातवाहन) ने उसके कवियों की चुनी हुई रचना की सतसई बनाई, प्रवर- सेन ने सेतुबंध से अपनी कीर्ति उसके द्वारा सागर के पार पहुँचाई, वाक्पति ने उसी में गौड़वध किया, किंतु यह पंडिताऊ प्राकृत हुई, व्यवहार की नहीं। जैनों ने धर्मभाषा मानकर उसका स्वतंत्र अनुशोलन किया और मागधी की तरह महाराष्ट्री भी जैन-रचनाओं में ही शुद्ध मिलती है। और छंदों के होने पर भी जैसे सस्कृत का 'श्लोक' अनुष्टुप् छंदों का गजा है, वैसे प्राकृत की रानी 'गाथा' है, लंबे छंद प्राकृत में आए कि संस्कृत की परछाई स्पष्ट देख पड़ा। प्राकृत कविता का प्रासन ऊँचा हुआ। यह कहा गया कि देशी शब्दों से भरी प्राकृत कविता के सामने सस्कृत को कौन सुनता है और राजशेखर ने, जिसकी प्राकृत उसकी संस्कृत के समान ही स्वतंत्र और

उद्भट है, प्राकृत को मीठा और संस्कृत को कठोर कह डाला।


  • ललिए महुरक्खरए जुवईयणवल्लहे ससिगारे।

सते पाइयकव्वे को सक्कइ सक्कयं पढिउं ॥ ( बब्जालग्ग, २६)

( ललित, मधुराक्षर, युवतीजगवल्लभ, सशृंगार प्राकृत कविता के होते हुए संस्कृत कौन पढ़ सकता है १)

+ परुसा सक्कप्रबंधा पाउअबधो वि होइ सुउमारो। पुरुस महिलाणं जेन्तिश्रमिहंतर तेत्तियमिमाण ॥ ( कर्पूरमंजरी)