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पृष्ठ:निबंध-रत्नावली.djvu/३९

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रामलीला

जहाँ के महाप्रकाश से दिग्दिगंत उद्भासित हो रहे थे, वहाँ अब एक अंधकार से घिरा हुआ स्नेहशून्य प्रदीप टिमटिमा रहा है, जिससे कभी कभी थोड़ा सा भूभाग प्रकाशित हो जाता है! पाठक ! जरा विचार कर देखिए ऐसी अवस्था में वहाँ कब तक शांति और प्रकाश की सामग्री स्थिर रहेगी? यह किससे छिपा हुआ है कि भारतवर्ष की सुखशांति और भारतवर्ष का प्रकाश अब केवल 'राम नाम' पर अटक रहा है। 'राम नाम' ही अब केवल हमारे संतप्त हृदय को शांतिप्रद है और 'राम नाम' ही अब हमारे अंधे घर का दीपक है।

यह सत्य है कि जो प्रवाह यहाँ तक क्षीण हो गया है कि पर्वतों को उथल देने की जगह आप प्रतिदिन पाषाणों से दब रहा है और लोग इस बात को भूलते चले जा रहे हैं कि कभी यहाँ भी एक प्रबल नद प्रवाहित हो रहा था, तो उसके पुनः प्रबल होने की आशा परित्याग कर देनी चाहिए। जो प्रदीप स्नेह से परिपूर्ण नहीं है और प्रतिकूल वायु में टिमटिमा रहा है वह कब तक सुरक्षित रहेगा? (परमात्मा न करे ) वायु के एक ही झोंके में उसका निर्वाण हो सकता है।

किंतु हमारा वक्तव्य यह है कि वह प्रवाह भगवती भागीरथी की तरह बढ़ने लगे तो क्या सामर्थ्य है कि कोई उसे रोक सके? वह प्रवाह कृत्रिम प्रवाह नहीं है, भगवती वसुंधरा के हृदय का प्रवाह है जिसे हम स्वाभाविक प्रवाह भी कह सकते हैं।