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पृष्ठ:निर्मला.djvu/१०७

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निर्मला
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इसी ने पिता जी से मेरी शिकायत की होगी। कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैं ने कभी तुम्हारे विरुद्ध एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाला। अगर मैं ऐसे देवकुमार का सा चरित्र रखने वाले युवक का बुरा चेतूँ, तो मुझसे बढ़ कर राक्षसी संसार में न होगी!

निर्मला देखती थी, मन्साराम का स्वास्थ्य दिन-दिन बिगड़ता जाता है, वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता है, उसके मुख की निर्मल कान्ति दिन-दिन मलिन होती जाती है, उसका सहास-बदन सङ्कुचित होता जाता है, इसका कारण भी उससे छिपा न था; पर वह इस विषय में अपने स्वामी से कुछ कह न सकती थी। यह सब देख-देख कर उसका हृदय विदीर्ण होता रहता था; पर उसकी जबान न खुल सकती थी। वह कभी-कभी मन में अँझलाती कि मन्साराम क्यों जरा सी बात पर इतना क्षोभ करता है। क्या इनके आवारा कहने से वह आवारा हो गया। मेरी बात है-एक जरा सा शक मेरा सर्वनाश कर सकता है; पर उसे ऐसी बातों की इतनी क्या परवाह?

उसके जी में प्रबल इच्छा हुई कि चल कर उन्हें चुप करूँ और लाकर खाना खिला हूँ। बेचारे रातभर भूखे पड़े रहेंगे। हाय! मैं ही इस उपद्रव की जड़ हूँ। मेरे आने के पहले इस घर में शान्ति का राज्य था। पिता बालकों पर जान देता था, बालक पिता को प्यार करते थे। मेरे आते ही सारी बाधाएँ आ खड़ी हुई। इनका अन्त क्या होगा? भगवान ही जानें! भगवान मुझे मौत