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पृष्ठ:निर्मला.djvu/१४९

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निर्मला
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मा मुन्शी जी ने रोते हुए कहा-नहीं,डॉक्टर साहब,यह शब्द मुँह से न निकालिए। हालत इसके दुश्मनों की नाजुक हो। ईश्वर मुझ पर इतना कोप न करेंगे। आप कलकत्ता और बम्बई के डॉक्टरों को तार दीजिए। मैं ज़िन्दगी भर आपकी गुलामी करूँगा। यही मेरे कुल का दीपक है! यही मेरे जीवन का आधार है! मेरा हृदय फटा जा रहा है! कोई ऐसी दवा दीजिए,जिससे इसे होश आ जाय। मैं जरा अपने कानों से उसकी बातें सुनें! जानूँ कि उसे क्या कष्ट हो रहा है! हाय,मेरा बच्चा!!

डॉक्टर-आप जरा दिल को तस्कीन दीजिए। आप बुजुर्ग आदमी हैं, यों हाय-हाय करने से और डॉक्टरों की फौज जमा करने से कोई नतीजा न निकलेगा। शान्त होकर बैठिए,मैं शहर के लोगों को बुला रहा हूँ; देखिए,वे क्या कहते हैं? आप तो खुद ही बदहवास हुए जाते हैं।

मुन्शी जी-अच्छा डॉक्टर साहब,मैं अब न बोलूँगा,जबान तक न खोलूंगा,आप जो चाहें करें,बच्चा अब आपके हाथ में है। आप ही उसकी रक्षा कर सकते हैं। मैं इतना ही चाहता हूँ कि जरा इसे होश आ जाय, मुझे पहचान ले,मेरी बातें समझने लगे। क्या कोई ऐसी दवा नहीं? कोई ऐसी सजीवनी बूटी नहीं? बस,मैं इससे दो-चार बातें कर लेता!

यह कहते-कहते मुन्शी जी फिर आवेश में आकर मन्साराम से बोले-बेटा,जरा आँखें खोलो,कैसा जी है? मैं तुम्हारे पास