सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निर्मला.djvu/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
निर्मला
१५८
 

गया। निर्मला ने पति की ओर निर्भय नेत्रों से देखते हुए कहा-डॉक्टरों ने क्या सलाह दी?

मुन्शी जी-सब के सब भङ्ग खा गए हैं। कहते हैं ताजा खून चाहिए।

निर्मला-ताजा खून मिल जाय,तो प्राण-रक्षा हो सकती है?

मुन्शी जी ने निर्मला की ओर तीव्र नेत्रों से देख कर कहा-मैं ईश्वर नहीं हूँ; और न डॉक्टरों ही को ईश्वर समझता हूँ।

निर्मला-ताजा खुन तो ऐसी अलभ्य वस्तु नहीं!

मन्शी जी-आकाश के तारे भी तो अलभ्य नहीं! मुँह के सामने खन्दक क्या चीज़ है!

निर्मला-मैं अपना खून देने को तैयार हूँ! डॉक्टर को बुलाइए!!

मुन्शी जी ने विस्मित होकर कहा-तुम!

निर्मला-हाँ! क्या मेरे खून से काम न चलेगा?

मुन्शी जी-तुम अपना खून दोगी! नहीं,तुम्हारे खून की जरूरत नहीं! इसमें प्राणों का भय है!!

निर्मला-मेरे प्राण और किस दिन काम आवेंगे?

मुन्शी जी ने सजल नेत्र होकर कहा-नहीं निर्मला,उनका मूल्य अब मेरी निगाहों में बहुत बढ़ गया है!आज तक वह मेरे भोग की वस्तु थी;आज से वह मेरी भक्ति की वस्तु है। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है,क्षमा करो!