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पृष्ठ:निर्मला.djvu/१६९

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निर्मला
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सुघा--सबसे बड़ा एव यही था कि उसके पिता का स्वर्गवास हो गया था,और वह कोई लम्बी-चौड़ी रकम न दे सकती थी! इतना स्वीकार करते क्यों झेपते हो? मैं कुछ तुम्हारे कान तो न काट लूँगी। अगर दो-चार फिकरे कहूँ,तो इस कान से सुन कर उस कान से उड़ा देना! ज्यादा ची-चपड़ करूँ,तो छड़ी से काम ले सकते हो। औरत-जात डण्डे ही से ठीक रहती है। अगर उस कन्या में कोई ऐव था,तो मैं कहूँगी कि लक्ष्मी भी वे ऐव नहीं ! तुम्हारी तकदीर खोटी थी, बस! और क्या? तुम्हें तो मेरे पाले पड़ना था!

सिन्हा-तुमसे किसने कहा कि वह ऐसी थी और वैसी थी ? जैसे तुमने किसी से सुन कर मान लिया, वैसे ही हम लोगों ने भी सुन कर मान लिया!

सुधा-मैं ने सुन कर नहीं मान लिया! अपनी आँखों देखा। ज़्यादा बखान क्या करूँ,मैं ने ऐसी सुन्दर स्त्री कभी नहीं देखी थी!!

सिन्हा ने व्यग्र होकर पूछा-क्या वह यहीं कहीं है? सच बताओ उसे कहाँ देखा? क्या तुम्हारे घर आई थी?

सुधा-हाँ,मेरे घर आई थी;और एक बार नहीं,कई बार आ चुकी है। मैं भी उसके यहाँ कई बार जा चुकी हूँ। वकील साहब की वीवी वही कन्या है,जिसे आपने ऐवों के कारण त्याग दिया!

सिन्हा-सच?

सुधा-विलकुल सच! आज अगर उसे मालूम हो जाय कि