सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निर्मला.djvu/१८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८५
पन्द्रहवाँ परिच्छेद
 

कृष्णा-(लजाती हुई ) शक्ल-सूरत तो बुरी नहीं है,स्वभाव का हाल ईश्वर जाने। शास्त्री जी तो कहते थे,ऐसे सुशील और चरित्रवान् युवक कम होंगे।

निर्मला--यहाँ से तेरी तस्वीर भी गई थी?

कृष्णा-गई तो थी,शास्त्री जी ही तो ले गए थे।

निर्मला-उन्हें पसन्द आई?

कृष्णा-अब किसी के मन की बात मैं क्या जानूँ? शास्त्री जी तो कहते थे, बहुत खुश हुए थे।

निर्मला-अच्छा वता, तुमे क्या उपहार दूं। अभी से वता दे, जिसमें बनवा रक्खूँ ।

कृष्णा-जो तुम्हारा जी चाहे दे देना। उन्हें पुस्तकों से बहुत प्रेम है। अच्छी-अच्छी पुस्तकें मँगवा देना।

निर्मला-उनके लिए नहीं पूछती, तेरे लिए पूछती हूँ।

कृष्णा अपने ही लिए तो मैं भी कह रही हूँ।

निर्मला-(तस्वीर की तरफ देखती हुई) कपड़े सव खद्दर के मालूम होते हैं।

कृष्णा-हाँ, खदर के बड़े प्रेमी हैं। सुनती हूँ.कि पीठ पर खद्दर लाद कर देहातों में वेचने जाया करते हैं । व्याख्यान देने में भी चतुर हैं।

निर्मला-तब तो तुझे भी खदर पहनना पड़ेगा। तुझे तो मोटे कपड़ों से चिढ़ है?