सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:निर्मला.djvu/२०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
निर्मला
२०६
 

हो रही है! भाँति-भाँति की शङ्काएँ मन में आ रही थीं! जाने को तैयार तो बैठे थे; लेकिन जी न चाहता था! जीवन शून्य सा मालूम होता था। मन ही मन कुढ़ रहे थे, अगर ईश्वर को इतनी जल्दी यह पदार्थ देकर छीन लेना था, तो दिया ही क्यों था? उन्होंने तो कभी सन्तान के लिए ईश्वर से प्रार्थना न की थी। वह आजन्म निस्सन्तान रह सकते थे; पर सन्तान पाकर उससे वञ्चित हो जाना उन्हें असह्य जान पड़ता था। 'क्या सचमुच मनुष्य ईश्वर का खिलौना है? यही मानव-जीवन का महत्व है! वह केवल बालकों का. घरोंदा है, जिसके बनने का न कोई हेतु है, न बिगड़ने का। फिर बालकों को भी तो अपने घरोंदों से-अपनी कागज़ की नावों से-अपने लकड़ी के घोड़ों से ममता होती है! अच्छे खिलौने को वह जान के पीछे छिपा कर रखते हैं। अगर ईश्वर बालक ही है, तो विचिन्न बालक है!"

किन्तु बुद्धि तो ईश्वर का यह रूप स्वीकार नहीं करती। अनन्त सृष्टि का कर्ता उद्दण्ड बालक नहीं हो सकता। हम उसे उन सारे गुणों से विभूषित करते हैं, जो हमारी बुद्धि की पहुँच से बाहर हैं । खिलाड़ीपन तो उन महान गुणों में नहीं! क्या हँसते-खेलते बालकों का प्राण हर लेना कोई खेल है? क्या ईश्वर ऐसे पैशाचिक खेल खेलता है।

सहसा सुधा दबे पाँव कमरे में दाखिल हुई! डॉक्टर साहब . 'उठ खड़े हुए और उसके समीप आकर बोले-तुम कहाँ थीं सुधा? मैं तुम्हारी राह देख रहा था!