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पृष्ठ:निर्मला.djvu/२१९

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निर्मला
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डॉक्टर -- मेर यहाँ तो जबघर में खाना पकता है, तो इससे कहीं स्वादिष्ट होता है। तुम्हारी बुआ जी प्याज़-लहसुन न छूती होंगी।

जिया ०-- हाँ साहब, उबाल कर रख देती हैं, लाला जी को इसकी पर्वाह ही नहीं कि कोई खाता है या नहीं। इसीलिए तो महाराज को अलग किया है। अगर रुपए नहीं हैं, तो रोज़ गहने कहाॅ से बनते हैं?

डॉक्टर -- यह बात नहीं है जियाराम, उनकी आमदनी सचमुच बहुत कम हो गई है। तुम उन्हें बहुत दिक़ करते हो।

जिया ०-- (हँस कर) मैं उन्हें दिक़ करता हूँ! मुझसे क़सम ले लीजिए, जो कभी उनसे बोलता भी हूँ। मुझे बदनाम करने का उन्होंने बीड़ा उठा लिया है। बेसबब, बेवजह पीछे पड़े रहते हैं। यहाँ तक कि मेरे दोस्तों से भी उन्हें चिढ़ है। आप ही सोचिए, दोस्तों के बग़ैर कोई ज़िन्दा रह सकता है। मैं कोई लुच्चा नहीं हूँ कि लुच्चों की सुहबत रक्खँ; मगर आप दोस्तों ही के पीछे मुझे रोज़ सताया करते हैं। कल तो मैंने साफ़ कह दिया -- मेरे दोस्त मेरे घर आएँगे, किसी को अच्छा लगे या बुरा! जनाब, कोई हो; हर वक्त़ की धौंस नहीं सह सकता!!

डॉक्टर -- मुझे तो भई उन पर बड़ी दया आती है। यह ज़माना उनके आराम करने का था। एक तो बुढ़ापा उस पर जवान बेटे का शोक; स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं। ऐसा आदमी क्या कर सकता है? वह जो कुछ थोड़ा-बहुत करता है, वही बहुत है। तुम अभी और कुछ नहीं कर सकते, तो कम से कम अपने