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पृष्ठ:निर्मला.djvu/४७

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निर्मला
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हैं, तो वह अपना धन्य भाग मानते हैं, और सारा घर--छोटे से बड़े तक हमारी सेवा-सत्कार में मग्न हो जाता है। जहाँ अपना आदर नहीं, वहाँ एक क्षण भी ठहरना हमें असह्य है। जहाँ ब्राह्मण का आदर नहीं, वहाँ कल्याण नहीं हो सकता।

भाल०--महाराज, हमसे तो ऐसा अपराध नहीं हुआ।

मोटे०--अपराध नहीं हुआ! और अपराध किसे कहते हैं? अभी आप ही ने घर में जाकर कहा कि यह महाशय तीन सेर मिठाई चट कर गए। पक्की तोल! आपने अभी खाने वाले देखे कहाँ! एक बार खिलाइए तो आँखें खुल जाय। ऐसे-ऐसे महान् पुरुप पड़े हुए हैं, जो पँसेरी भर मिठाई खा जाएँ और डकार तक न लें। एक मिठाई खाने के लिए हमारी चिरौरी की जाती है, रुपये दिए जाते हैं। हम भिक्षुक नहीं हैं, जो आपके द्वार पर पड़े रहें। आपका नाम सुन कर आए थे; यह न जानते थे कि यहाँ मेरे भोजन के भी लाले पड़ेंगे। जाइए, भगवान् आपका कल्याण करें!

बाबू साहब ऐसा झपे कि मुँह से बात न निकली। जिन्दगी मर में उन पर कभी ऐसी फटकार न पड़ी थी। बहुत बातें बनाई आपकी चर्चा न थी, एक दूसरे ही महाशय की बात थी, लेकिन पण्डित का क्रोध शान्त न हुआ। वह सब कुछ सह सकते थे; पर अपने पेट की निन्दा न सह सकते थे। औरतों को रूप की निन्दा जितनी अप्रिय लगती है, उससे कहीं अप्रिय पुरुषों को अपने पेट की निन्दा लगती है। बाबू साहव मनाते तो थे; पर यह धड़का भी समाया हुआ था कि यह टिक न जाय। उनकी कृपणता का परदा