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पृष्ठ:निर्मला.djvu/८९

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निर्मला
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हो गया था। अब वह नियमित रूप से पढ़ रही थी। वकील साहब की छाती पर साँप सा लोट गया,त्योरियाँ बदल कर बोले-कब से पढ़ा रहा है तुम्हें? मुझसे तुमने पहले कभी नहीं कहा। .

निर्मला ने उनका यह रूप केवल एक बार देखा था,जब उन्होंने सियाराम को मारते-मारते बेदम कर दिया था। वही रूप और भी विकराल बन कर आज उसे फिर दिखाई दिया। सहमती हुई बोली-उनके पढ़ने में तो इससे कोई हरज नहीं होता। मैं उसी वक्त उनसे पढ़ती हूँ,जब उन्हें फुरसत रहती है। पूछ लेती हूँ कि तुम्हारा हरज होता हो तो जाओ। बहुधा जब वह खेलने जाने लगते हैं,तो दस मिनिट के लिए रोक लेती हूँ। मैं खुद चाहती हूँ कि उनका नुकसान न हो।

बात कुछ न थी,मगर वकील साहब हताश से होकर चारपाई पर गिर पड़े और माथे पर हाथ रख कर गहन चिन्ता में मग्न हो गए। उन्होंने जितना समझा था,बात उससे कहीं बढ़ गई थी। उन्हें अपने ऊपर क्रोध आया कि मैंने पहले ही क्यों न इस लौंडे को बाहर रखने का प्रबन्ध किया। आजकल जो यह महारानी इतनी खुश दिखाई देती हैं,इसका रहस्य अब समझ में आया। पहले कभी कमरा इतना सजा-सजाया न रहता था,बनाव-चुनाव भी न करती थीं;पर अब देखता हूँ काया-पलट सी हो गई है। जी में तो पाया कि इसी वक्त चल कर मन्साराम को निकाल दूं लेकिन प्रौढ़ बुद्धि ने समझाया किइस अवसर पर क्रोध की जरूरत नहीं। कहीं इसने भाँपलिया,तो गजब ही हो जायगा।