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पृष्ठ:निर्मला.djvu/९५

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निर्मला
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की मनाही है। मेरे पास आते भी डरता है; और फिर मेरे पास रक्खा ही क्या रहता है, जो जाकर खिलाऊँगी?

इतने में मन्साराम दो फुलके खाकर उठ खड़ा हुआ। मुन्शी जी ने पूछा-क्या तुम खा चुके? अभी बैठे एक मिनिट से ज्यादा नहीं हुआ। तुमने खाया क्या? दो ही फुलके तो लिए थे?

मन्साराम ने सकुचाते हुए कहा-दाल और तरकारी भी तो थी। ज्यादा खा जाता हूँ, तो गला जलने लगता है, खट्टी डकारें आने लगती हैं।

मुन्शी जो भोजन करके उठे, तो बहुत चिन्तितथे। अगर.लड़का योंही दुबला होता गया, तो कोई भयङ्कर रोग पकड़ लेगा। उन्हें रुक्मिणी पर इस समय बहुत क्रोध आ रहा था। इन्हें यही जलन है कि मैं घर की मालिकिन नहीं हूँ। यह नहीं समझती कि मुझे घर की मालिकिन बनने का क्या अधिकार है। जिसे रुपयों का हिसाब तक करना नहीं आता, वह घर की स्वामिनी कैसे हो सकती है? बनी तो थीं साल भरतकमालिकिन-एक पाई की भी बचत न होती थी। इसी आमदनी में रूपकला दो-ढाई सौ रुपये बचा लेती थी। इनके राज में वही आमइनी खर्च को भी पूरी न पड़ती थी। कोई बात नहीं, लाड़-प्यार ने इन लड़कों को चौपट कर दिया। इतने बड़ेबड़े लड़कों को इसकी क्या जरूरत कि जब कोई खिलाए तो खायँ? इन्हें तो खुद अपनी फिक्र रखनी चाहिए। मुन्शी जी दिन भर इसी उधेड़-बुन में पड़े रहे। दो-चार मित्रों से.भी जिक्र किया! लोगों ने कहा-उसके खेल-कूद में वाधा न डालिए, अभी से उसे