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कृष्णा—यह क्यों अम्मा? पहले तो वहीं ठीक हो गया था न?

कल्याणी-बहुत से रुपए माँगता है। मेरे पास उसे देने को रुपए नहीं हैं।

कृष्णा-क्या बड़े लालची हैं, अम्मा?

कल्याणी लालची नहीं तो और क्या है? पूरा कसाई, निर्दयी, दगाबाज।

कृष्णा—तब तो अम्मा, बहुत अच्छा हुआ कि उसके घर बहन का ब्याह नहीं हुआ। बहन उसके साथ कैसे रहती? यह तो खुश होने की बात है अम्माँ, तुम रंज क्यों करती हो?

कल्याणी ने पुत्री को स्नेहमयी दृष्टि से देखा। इसका कथन कितना सत्य है? भोले शब्दों में समस्या का कितना मार्मिक निरूपण है? सचमुच यह तो प्रसन्न होने की बात है कि ऐसे कुपात्रों से संबंध नहीं हुआ, रंज की कोई बात नहीं। ऐसे कुमानुसों के बीच में बेचारी निर्मला की न जाने क्या गति होती। अपने नसीबों को रोती। जरा-सा घी दाल में अधिक पड़ जाता तो सारे घर में शोर मच जाता, जरा खाना ज्यादा पक जाता तो सास दुनिया सिर पर उठा लेती। लड़का भी ऐसा लोभी है। बड़ी अच्छी बात हुई, नहीं, बेचारी को उम्र भर रोना पड़ता। कल्याणी यहाँ से उठी तो उसका हृदय हलका हो गया था।

लेकिन विवाह तो करना ही था और हो सके तो इसी साल, नहीं तो दूसरे साल फिर नए सिरे से तैयारियाँ करनी पड़ेंगी। अब अच्छे घर की जरूरत न थी। अच्छे वर की जरूरत न थी। अभागिनी को अच्छा घर-वर कहाँ मिलता! अब तो किसी भाँति सिर का बोझा उतारना था, किसी भाँति लड़की को पार लगाना था, उसे कुएँ में झोंकना था। यह रूपवती है, गुणशीला है, चतुर है, कुलीन है तो हुआ करे, दहेज नहीं तो उसके सारे गुण दोष हैं, दहेज हो तो सारे दोष गुण हैं। प्राणी का कोई मूल्य नहीं, केवल दहेज का मूल्य है। कितनी विषम भाग्यलीला है!

कल्याणी का दोष कुछ कम न था। अबला और विधवा होना ही उसे दोषों से मुक्त नहीं कर सकता। उसे अपने लड़के अपनी लड़कियों से कहीं ज्यादा प्यारे थे। लड़के हल के बैल हैं; भूसे खली पर पहला हक उनका है, उनके खाने से जो बचे, वह गायों का! मकान था, कुछ नकद था, कई हजार के गहने थे, लेकिन उसे अभी दो लड़कों का पालन-पोषण करना था, उन्हें पढ़ाना-लिखाना था। एक और कन्या चार-पाँच साल में विवाह करने योग्य हो जाएगी, इसलिए वह कोई बड़ी रकम दहेज में न दे सकती थी, आखिर लड़कों को भी तो कुछ चाहिए। वे क्या समझेंगे कि हमारा भी कोई बाप था।

पंडित मोटेराम को लखनऊ से लौटे पंद्रह दिन बीत चुके थे। लौटने के बाद दूसरे ही दिन से वह वर की खोज में निकले थे। उन्होंने प्रण किया था कि मैं लखनऊ वालों को दिखा दूंगा कि संसार में तुम्हीं अकेले नहीं हो, तुम्हारे जैसे और भी कितने पड़े हुए हैं। कल्याणी रोज दिन गिना करती थी। आज उसने उन्हें पत्र लिखने का निश्चय किया और कलम-दवात लेकर बैठी ही थी कि पंडित मोटेराम ने पदार्पण किया।

कल्याणी-आइए पंडितजी, मैं तो आपको खत लिखने जा रही थी, कब लौटे?

मोटेराम-लौटा तो प्रात:काल ही था, पर इसी समय एक सेठ के यहाँ से निमंत्रण आ गया। कई दिन से तर माल न मिले थे। मैंने कहा कि लगे हाथ यह भी काम निपटाता चलूँ। अभी उधर ही से लौटा आ रहा हूँ, कोई पाँच सौ ब्राह्मणों को पंगत थी।

कल्याणी-कुछ कार्य भी सिद्ध हुआ या रास्ता ही नापना पड़ा।

मोटेराम–कार्य क्यों न सिद्ध होता? भला, यह भी कोई बात है? पाँच जगह बातचीत कर आया हूँ। पाँचों की नकल लाया हूँ। उनमें से आप चाहे, जिसे पसंद करें। यह देखिए, इस लड़के का बाप डाक के सीगे में सौ रुपए महीने का नौकर है। लड़का अभी कॉलेज में पढ़ रहा है, मगर नौकरी का भरोसा है, घर में कोई जायदाद नहीं।