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मुंशीजी के नथुने फड़कने लगे। वह झल्लाकर चारपाई से उठे और निर्मला का हाथ पकड़कर बोले तुम्हारे यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं। जब मैं बुलाऊँ, तब आना। समझ गईं?

अरे! यह क्या अनर्थ हुआ! मंसाराम जो चारपाई से हिल भी न सकता था, उठकर खड़ा हो गया और निर्मला के पैरों पर गिरकर रोते हुए बोला—अम्माँजी, इस अभागे के लिए आपको व्यर्थ इतना कष्ट हुआ। मैं आपका स्नेह कभी भी न भूलूँगा। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि मेरा पुनर्जन्म आपके गर्भ से हो, जिससे मैं आपके ऋण से उऋण हो सकूँ। ईश्वर जानता है, मैंने आपको विमाता नहीं समझा। मैं आपको अपनी माता समझता रहा। आपकी उम्र मुझसे बहुत ज्यादा न हो, लेकिन आप, मेरी माता के स्थान पर थीं और मैंने आपको सदैव इसी दृष्टि से देखा...अब नहीं बोला जाता अम्माँजी, क्षमा कीजिए! यह अंतिम भेंट है।

निर्मला ने अश्रु-प्रवाह को रोकते हुए कहा तुम ऐसी बातें क्यों करते हो? दो-चार दिन में अच्छे हो जाओगे।

मंसाराम ने क्षीण स्वर में कहा-अब जीने की इच्छा नहीं और न बोलने की शक्ति ही है।

यह कहते-कहते मंसाराम अशक्त होकर वहीं जमीन पर लेट गया। निर्मला ने पति की ओर निर्भय नेत्रों से देखते हुए कहा-डॉक्टर ने क्या सलाह दी?

मुंशीजी-सब-के-सब भंग खा गए हैं। कहते हैं, ताजा खून चाहिए।

निर्मला ताजा खून मिल जाए तो प्राण-रक्षा हो सकती है?

मुंशीजी ने निर्मला की ओर तीव्र नेत्रों से देखकर कहा—मैं ईश्वर नहीं हूँ और न डॉक्टर ही को ईश्वर समझता हूँ।

निर्मला-ताजा खून तो ऐसी अलभ्य वस्तु नहीं!

मुंशीजी-आकाश के तारे भी तो अलभ्य नही! मुँह के सामने खंदक क्या चीज है?

निर्मला—मैं अपना खून देने को तैयार हूँ। डॉक्टर को बुलाइए।

मुंशीजी ने विस्मित होकर कहा-तुम!

निर्मला—हाँ, क्या मेरे खून से काम न चलेगा?

मुंशीजी-तुम अपना खून दोगी? नहीं, तुम्हारे खून की जरूरत नहीं। इसमें प्राणों का भय है।

निर्मला—मेरे प्राण और किस दिन काम आएँगे?

मुंशीजी ने सजल-नेत्र होकर कहा-नहीं निर्मला, उसका मूल्य अब मेरी निगाहों में बहुत बढ़ गया है। आज तक वह मेरे भोग की वस्तु थी, आज से वह मेरी भक्ति की वस्तु है। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, क्षमा करो।

13.

जो कुछ होना था, हो गया, किसी की कुछ न चली। डॉक्टर साहब निर्मला की देह से रक्त निकालने की चेष्टा कर ही रहे थे कि मंसाराम अपने उज्ज्वल चरित्र की अंतिम झलक दिखाकर इस भ्रम-लोक से विदा हो गया। कदाचित् इतनी देर तक उसके प्राण निर्मला ही की राह देख रहे थे। उसे निष्कलंक सिद्ध किए बिना वे देह को कैसे त्याग देते? अब उनका उद्देश्य पूरा हो गया। मुंशीजी को निर्मला के निर्दोष होने का विश्वास हो गया, पर कब? जब हाथ से तीर निकल चुका था, जब मुसाफिर ने रकाब में पाँव डाल लिया था।

पुत्र-शोक में मुंशीजी का जीवन भार-स्वरूप हो गया। उस दिन से फिर उनके ओठों पर हँसी न आई। यह जीवन अब उन्हें व्यर्थ-सा जान पड़ता था। कचहरी जाते, मगर मुकदमों की पैरवी करने के लिए नहीं, केवल दिल बहलाने के लिए घंटे-दो-घंटे में वहाँ से उकताकर चले आते। खाने बैठते तो कौर मुँह में न जाता। निर्मला अच्छी से अच्छी