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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/११२

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पदुमावति ।२। सिंधन-दौप-बरनन-खंड । [४१ - ४२ . हैं ॥ बहुत विधान (विधि) से वे सिंह गढे हुए हैं, अर्थात् सच्चे सिंह से उन से कुछ भेद नहीं समझ पडता है। वे ऐसे जान पड़ते हैं, जानों गरजते हैं, और सिर पर चढा चाहते हैं ॥ वे पूंछ को हिलाते हैं, और जीभ को फैलाते हैं। (इस चेष्टा को देख कर) हाथी डरते हैं, कि ये सिंह गुजार कर अब लिया चाहते हैं। सोने की शिला को गढ कर (गढ में) मौढी लगाई गई हैं, जो कि गढ के ऊपर तक जगमगाती . नवो खण्ड में नव डेवढियाँ हैं, और तिन में वज्र के केवाडे लगे हैं। जो कोई सत्य से, अर्थात् निष्कपट व्यवहार से, चढने में समर्थ है, वह चार दिन बसेरा कर (टिक कर), तब (उस गढ पर) चढता है, अर्थात् जिस को उस के सत्य व्यवहार से चढने की आज्ञा मिलती है, उसे गढ पर चढने में चार दिन लगते हैं । यहाँ पर गढ को शरीर, और दो आँख, दो कानं, दो नासिका के पूरे, और दो गुह्येन्द्रिय ये नव पौरौ, और प्राण अपानादि पाँच वायु को कोतवाल, हड्डियों को वज्र कपाट, रोमादिकों को योद्धा, और अन्तःकरण-स्थ प्रात्मा को गढ का राजा मानने से, अर्थान्तर हो सकता है ॥ ४१ ॥ चउपाई। नवउँ पउरि पर दसउँ दुबारा। तेहि पर बाजु राज-घरिारा ॥ घरी सो बइठि गनइ घरिवारौ। पहर पहर सो आपनि बारी ॥ जबहिँ घरी पूजइ वह मारा। घरौ घरी घरिवार पुकारा ॥ परा जो डाँड जगत सब डाँडा। का निचिंत माँटी के भाँडा। तुम्ह तेहि चाक चढे होइ काँचे। आउ फिरइ न थिर होइ बाँचे॥ घरी जाँ भरेइ घटइ तुम्ह श्राऊ। का निचिंत सोअहु र बटाज ॥ पहरहि पहर गजर निति होई। हिा निसोगा जागु न सोई॥ दोहा। मुहमद जौअन जल भरन रहट घरी कइ रौति । घरी जो आइ जीअन भरी ढरी जनम गा बौति ॥ ४२ ॥