सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:पदुमावति.djvu/१८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६४.-६५] सुधाकर-चन्द्रिका। १०१ शाखायें उन्नत (ऊँचौ) हुई हैं ॥ अथवा मखियाँ नहीं हैं, जानाँ वसन्त ऋतु नई नई कलियों को संवारा है (लगाया है), और रस से भरी वे कलियाँ प्रगट होती हैं, अर्थात् प्रगट हुई हैं ॥ सरोवर (आज श्रानन्द से भरा) संसार में नहीं समाता है, (क्योंकि धन्य वह मरोवर है जहाँ) चन्द्र ताराओं को ले कर पैठ कर नहाता है। पद्मावती चन्द्रमा सखियाँ तारा के समान हैं ॥ धन्य वह (मो) नौर (पानी) है, जहाँ चन्द्र और तरैयाँ उदय हुई हैं। (भला जहाँ चन्द्र और तारे उदित हैं, तहाँ ) अब कमल और कोई पर कहाँ दृष्टि पडे ॥ चन्द्रमा और तारे रात को उदित होते हैं, इस लिये रात समझ कर चकई और चकवे विछुड़ गये। तब विछुड कर चकई पुकारती है, कि हे नाथ (नाँह) अब कैसे मिल, क्योंकि एक चन्द्र तो रात्रि (निशि) में स्वर्ग पर रहता है, और दूसरा (अब ) दिन को जल के बीच उदय हुश्रा ॥ ६४ ॥ चकई चकवे के विषय में ३३ वें दोहे की टौका देखो॥ चउपाई। लागौँ केलि करइ मँझ नौरा। हंस लजाइ बइठु तेहि तौरा ॥ पदुमावति कउतुक कह राखौ। तुम्ह ससि होहु तरायन साखौ ॥ बाद मेलि कइ खेलि पसारा। हार देइ जउँ खेलत हारा ॥ सवरिहि सावरि गोरिहि गोरी। अापनि आपनि लीन्ह सोजोरी ॥ बूझि खेलि खेलहु एक साथा। हार न होइ पराए हाथा ॥ आजु-हि खेलि बहुरि कित होई। खेलि गए कित खेलइ कोई ॥ धनि सो खेलि खेलहि रस पेमा। रउताई अउ कसर दोहा। मुहमद बारि परेम कर जउ भावइ तउ खेल। तेलहि फूलहि संग जउँ होइ फुलाप्रल तेल ॥ ६५ ॥ मंझ= माँझ मध्य । कउतुक = कौतुक । तरायन = तारा-गण वा डूबने-वाली। माखौ= साची। बाद = झगडा = बाजी। मेलि = लगा कर। पसारा = प्रसरण किया = फैलाया। हार = मुक्ताहार = गले का हार। सावंरि = श्याम वर्ण को श्यामली। . खेमा॥