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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/१९२

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पदुमावति । ५ । सुया-खंड । पद-पैर देखहु किछु अचरज अनभला। तरिवर एक आवत हइ चला ॥ प्रहि बन रहत गई हम आऊ। तरिवर चलत न देखा काऊ ॥ आजु जो तरिवर चल भल नाहौँ। अावहु प्रहि बन छाँडि पराहौँ । वेइ तउ उडे अउरु बन ताका। पंडित सुश्रा भूलि मन थाका ॥ साखा देखि राजु जनु पावा । बइठ निचिंत चला वह आवा ॥ दोहा। पाँच बान कर खाँचा लासा भरे सो पाँच । पाँख भरे तन अरुझा कित मारइ बिनु बाँच ॥ ७१ ॥ कलि 1= कल = विश्राम, दूस का विरोधी कल में वि उपसर्ग लगाने से विकल । काटौ = विताया। बिश्राध = व्याध। ढुका = छिपा । टाटौ = टट्टी। पग = = पग = प्रग। भुइँ = भूमि । अचरज = आश्चर्य। अनभला = बुरा फल देने वाला। तरिवर =तरुवर = बडा वृक्ष । श्राऊ = आयु। काऊ = क्वापि वा को ऽपि । पराही: पराय पलायन करें =भागें। ताका= देखा = तर्क किया। माखा = शाखा। राजु = राज्य । निचिंत = निश्चिन्त । बान = वाण । खाँचा = खाँचने के लिये वंश-दण्ड । लासा = लसौ-दार द्रव पदार्थ जो परों में चफन जाय । बहेलिये प्रायः बर के दूध को तेल में मार कर लामा बनाते हैं । तहाँ (जिस वन की चर्चा ६८ वे दोहे में कर आये हैं ) शक ने दश दिन विश्राम से काटा, अर्थात् बिताया, (तब तक) व्याध (बहेलिया ) श्रा कर टट्टी ले कर (फँसाने के लिये) ढुका ॥ (बहेलिये वन में पक्षियों को फंसाने के लिये हरे हरे वृक्षों के शाखा पल्लवों से एक ऐसी टट्टी बनाते हैं जो देखने-वालों को वृक्ष-ही समझ पडती है। इस प्रकार शेर के शिकार में भी लोग मचान में वृक्षों के डार पात लगा कर उस को वृक्ष ऐसा बना लेते हैं ॥ (वह व्याधा) पैर पैर पृथ्वी को चाँपते हुए पाया ( जिस में पैर का शब्द पक्षियों के कान में न पडे ) । पचौ (इस बौला को) देख कर हृदय में डर खाये, अर्थात् डर गये॥ आपस में कहने लगे (कि, भाई,) देखो यह बुरा फल देने वाला आश्चर्य है, कि एक बड़ा वृक्ष चला आता है। दूस वन में रहते हम लोगों को ( दूतनौ) आयु गई, ( परन्तु) कभी बडे वृक्ष चलते नहीं देखा, वा किसी ने बडे वृक्ष को चलते नहीं देखा (तरिवर कहने से आश्चर्य हुआ, -