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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/१९६

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पदुमावति । ५ । सुआ-खंड । [७३-७४ धरते हैं (पकडते हैं ) ॥ (हा,) तिमी (फर) के श्राड में निश्चिन्त हो कर हम भौ बैठे, (जब बहेलिये ने) हृदय में खाँचे को गाड दिया, तब जाना, अर्थात् तब जान पडा, कि फंसे ॥ (हा, प्राणी ) सुख से निश्चिन्त हो कर धन और सुख-साधन-सामग्री को जोडता है, (परन्तु) यह चिन्ता (चिंत) नहीं करता, कि आगे मरना है ।। ( हाय,) तिन्ही (सुख-साधन-सामग्रौ ) में गर्व से हम भी भूले, (इस लिये) जो सुख जिस (ईश्वर) के यहाँ से पाया था वही ईश्वर भूल गया, अर्थात् गर्व से उसी को भुला दिया ; उसी का यह फल है, कि फंदे में फंसे || जब तक चरते संशय नहीं किया, अरे, तब तक तो सुख उन फलों को ( मोद्) चरा (खाया)। अब जो गला फंदे में फंसा तब रोने से क्या हो, अर्थात् अब उसी ईश्वर का ध्यान करना उचित है, जिसे गर्व से भुला दिया था, और अब रोने से कुछ फल नहौं ॥ ७३ ॥ चउपाई। सुनि कइ उतर आँसु सब पाँछे । कउनु पंख बाँधे बुधि ओछे ॥ पंखिन्ह जउँ बुधि होइ उँजिारी। पढा सुत्रा कित धरइ मँजारी॥ कित तौतर बन जीभ उघेला। सो कित हकारि फाँद गिउ मेला ॥ ता दिन व्याध भएउ जिउ-लेवा। उठे पाँख भा नाउँ परेवा ॥ भइ बिश्राधि तिसिना सँग खाधू। सूझइ भुगुति न सूझ बिआधू ॥ हमहि लाभ वह मेला चारा। हमहिं गरब वह चाहइ मारा ॥ हम निचिंत वह अाउ छपाना। कउनु बिआधहि दोस अपाना ॥ दोहा। सो अउगुन कित कौजिए जिउ दीजिअ जेहि काज । अब कहना किछु नाहौँ मसटि भली पँखि-राज ॥ ७४ ॥ इति सुआ-खंड ॥५॥ कउनु = कौन = को नु। पंख = पक्ष । बुधि= बुद्धि। श्रोछे = तुच्छ = हलका । तीतर

तित्तिर। जौभ = जिहा। उघेला = उद्घाटन किया = उघारा = खोला। हकारि