सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१५० पदुमावति । ६ । राजा-सुया-संवाद-खंड । [88-24 %3D करने-वाली। सयान = सज्ञान = चतुर = माननीय । श्र-मत = श्र-सत्य । काउ= कभी क्वापि। दऊँ = दोनों में से । श्रनाउ = अन्याय ॥ राजा ने कहा, कि, हे शुक, सत्य कह। (क्यों कि) विना सत्य के दूँ कैसा है? जैसे सेमर का भूत्रा (जो कि फूंक देने से उड जाता है ) ॥ (क्याँकि) सत्य को वार्ता (कहने) से मुख ललित होता है, अर्थात् रहता है। और जहाँ पर सत्य है तहाँ धर्म का समूह रहता है (क्योंकि शास्त्रों में भी लिखा है, कि सत्यान्नास्ति परो धर्मः) ॥ सत्य-(-ही) को बाँधौ सृष्टि है, सत्य-(-ही) को चेरी लक्ष्मौ है ॥ जहाँ पर सत्य है, तहाँ साहस से (महमा से) (भौ) मिद्धि पाई जाती है, अर्थात् प्रसिद्धं है, कि साहस से कार्य की सिद्धि नहीं होती, परन्तु जहाँ सत्य है, तहाँ साहस करने से भी कार्य की सिद्धि होती है। और जहाँ सत्य है, वह पुरुष सत्य-वादी कहाता है ॥ सत्य- ( सत्य-लोक-)-हो के लिये सती चिता (सरा) को रचती है (सँवारद), और सत्य-हो से, अर्थात् विवाह के समय जो पति से सप्त-पदी के समय कहा है, कि आप के दुःख सुख दोनों में साथ रहँगी, इस वचन को सत्य करने-हो के लिये चारो दिशा में भाग (अग्नि) को लगा कर जलती है। जिस ने सत्य को रकबा, वह दोनों जग को, अर्थात् इस लोक और परलोक को, तर गया (पार हो गया), और ईश्वर को ( दहि) भी सत्य-भाषा प्यारौ है ॥ ऐसे सत्य को जो धर्म का विनाश करता है, वही (सो) छोडता है। (मो, हे शुक, ) क्या तुम हृदय में सत्य-नाश करने वाली मति को किया, अर्थात् खेद की बात है, कि व्यर्थ तुम ने “उलू न जान दिवस कर भाऊ” (८८ वाँ दोहा) इत्यादि वाक्य से मेरी निन्दा की। ( सो) तुम सयाने और पण्डित हो। तुम कभी अ-सत्य नहीं कहते हो (भाखड़)। तुम मुझ से सत्य कहो, कि (नाग-मतौ और तुम दून) दोनों में से किस का अन्याय है, अर्थात् सच मुच तुम ने मेरौ निन्दा को, वा नाग-मती ने अपने मन से बात बना कर मुझ से कह दिया है ॥ ४ ॥ चउपाई। सत्त कहत राजा जिउ जाऊ। . पड़ मुख अ-सत न भाखउँ काज ॥ हउँ सत लेइ निसरा प्रहि पते। सिंघल-दीप राज घर हतें॥ पदुमावति राजा कइ बारी। पदुम-गंध ससि बिधि अउतारी ॥