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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/२७६

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१८६ पदुमावति । १० । नखसिख-खंड । [१०६ - ११० हँसते मैं तिस तरह से दाँत चमक उठता है, जैसे पाहन (हौरा-पाषाण), अर्थात् वज्र, झलक उठे। (उन लाल मस-गुर मिले उज्वल दाँतों को) बराबरी दाडिम जो (अनार) न कर सका (सौ ग्लानि और सन्ताप से ) तडक कर (उस दाडिम का) हृदय फट गया। अनार जब पकते हैं, तब स्वभाव-हौ से फट जाते हैं। तहाँ कवि की उत्प्रेक्षा है, कि जान पडता है, कि दाडिम पद्मावती के दाँतों के समान अपने को न देख कर, रात दिन चिन्ता करते करते, श्राकुल हो गया, और उसी चिन्ताग्नि-ज्वाला से उस का हृदय विदीर्ण हो गया है। किसी कवि ने अाम्र की प्रशंसा में भी कहा है, कि ह्रिया श्यामा जम्बू स्फुटितहृदयं दाडिमफलं सदा धत्ते शूलं हृदय अभिमानेन पनमः । कठोरे श्रीलक्ष्मी फल दह रुजा वारि जठरे समुद्भूते चूते जगति फलराजे प्रभवति ॥ इस प्रकार कवि की उक्ति अतिशय चमत्कृत है ॥ १०८ ॥ - चउपाई। रसना कहउँ जो कह रस-बाता। अंब्रित बयन सुनत मन राता ॥ हरइ सो सुर चातक कोकिला। बीन बंसि वेइ बयन न मिला ॥ चातक कोकिल रहहिँ जा नाहौं। सुनि वेइ बयन लाजि छपि जाहौँ । भरे पेम-मधु बोलइ बोला। सुनइ सो माति घूवि कइ डोला ॥ चतुर बेद मति सब ओहि पाँहा। रिग जजु साव अथरबन माँहा ॥ एक एक बोल अरथ चउ-गुना। इंदर मोहि बरम्हा सिर धुना ॥ अमर पिँगल भारथ अउ गीता। अरथ जो जेहि पंडित नहिं जीता। दोहा। भावसती व्याकरन सब पिंगल पाठ पुरान। बेद भेद सउँ बात कह तस जनु लागहिँ बान ॥ ११० ॥ रमना = जिहा = जीभ । रस-बाता=रस-बार्ता= रस की बात। अंबित = अम्मत । बयन वचन = बोली। राता रक्त हो जाता है = लग जाता है। हर == हरति हरती है। सुर = स्वर = वाणी। चातक == | एक पचि-विशेष, जो दूस प्रान्त में वसन्त से