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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/३५८

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२५२ पदुमावति । १२ । जोगी-खंड । [ १३२ .. . - मेखला, श्रङ्गी, सेलो, गुदरौ, खप्पर, कणे-मुद्रा, कौपीन, कमण्डलु, भस्म (राख), व्याघ्राम्बर, झोला इत्यादि को धारण किये, गोपी-चन्द प्रधान पट्ट-रानी पाटम-देवी से भिक्षा मांगने के लिये आया है; उस समय पाटम-देवी और उस से जो जो बातें हुई हैं, उन को संप्रति योगी लोग नाना प्रकार की गौतों में गाया फिरते हैं। बहुतेरे ऐसे मनोहर खर से गाते हैं, कि उस करुणामय-वृत्तान्त को सुनने से महृदय पुरुषर्षों के नयनों से आँस की धारा बहने लगती है। योगियों से गौतों का संग्रह कर, आज कल बहुत लोगों ने कुछ अपनी कल्पना से हेर फेर कर, दूस कथा को पुस्तकाकार में छपवा भौ डाला है। गोपौ-चन्द को एक कन्या थी; भिक्षा माँगने को वेला में दूस ने भी बहुत माया कर, चाहौ थी, कि पिता मेरा योग तज दे। यद्यपि योगौ लोग अपनी गौतों में गोपी-चन्द को बङ्गाले का राजा कह कह कर, गाया करते हैं, तथापि बङ्गाले में दूस कथा का अल्प, और और-ही प्रकार से प्रचार होने से (मानिक-चन्द्र-राजार गान* और पूरण-प्रसाद का छपवाया गोपी-चन्द, को कथा देखो), और राजपुताने और मालवा प्रान्त में इस आख्यायिका का विशेष कर प्रचार होने से मुझे ऐसा अनुमान होता है, कि यह गोपी-चन्द राजपुताने वा मालवे का कोई राजा रहा हो तो आश्चर्य नहीं । इतिहास-वेत्ताओं को दूस का पूरा पता लगाना चाहिए ॥ वह (गोपौ-चन्द ने) भी जब देखा, कि (यह संसार को) सृष्टि पराई है, वा पक्षी के सदृश (जो एक स्थान पर स्थित नहीं रहते, इधर उधर उडा फिरा करते हैं ) है, (तब) राज को तजा (और योग साधने के लिये ) कदली- वन का सेवन किया ॥ देहरा दून से ले कर हृषीकेश, वदरिकाश्रम, और उस के उत्तर के हिमालय के प्रान्त सब कजरी-वन कहे जाते हैं। संस्कृत में दूस वन को कदलो- वन कहते हैं। लोक में दूसो कदली का अपभ्रंश कजरौ हो गया है। इस वन में केले (कदलो) के वृक्ष विशेष कर के हैं, इसी से दूम का नाम कदलौ-वन पडा। दूस वन में हाथो बहुत रहते हैं, और यह सिद्धों के रहने का स्थान है। विना सिद्ध हुए मनुष्य दूस वन में नहीं प्रवेश कर सकता। इस वन में आज तक अमर-खरूप हनुमान् जो सुख से विश्राम करते हैं । द्रौपदी के सहित पाण्डव लोग जब वदरिका- श्रम में पहुंचे हैं, तब नर-नारायण के दर्शन करने पर छ रात्रि तक वहाँ ठहरे थे। उमौ समय वायु में उडता हुआ एक सहस्र-पत्र का कमल सुगन्ध से भरा द्रौपदी के

  • J. A. S. B., Vol. xlvii, 1878, Part I, pp. 135 and ff.