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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/४८८

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३८२ पदुमावति । १८ । वियोग-खंड । [ १७२ - १७३ जहाँ हवा भौतर नहीं धसने पाता तहाँ भ्रमर (भौ) नहीं बैठता अर्थात् तहाँ भ्रमर भी नहीं बैठ सकता। सो सूं भूली हरिनी के ऐसी क्यों हो गई, मानौँ सिंह ने तुझे देखा हो ( जिस के डर से पौलो हो गई ) ॥ १७९ ॥ चउपाई। धाइ सिंघ बरु खातेउ मारी। कइ तसि रहति आहि जस बारी॥ जोबन सुने कि नवल बसंतू। तेहि बन परेउ हसति मइमंतू ॥ अब जोबन बारी को राखा। कुंजल बिरह बिधाँसइ साखा ॥ मइँ जानेउँ जोबन रस-भोगू। जोबन कठिन सँताप बिनोगू ॥ जोबन गरुन अपेल पहारू। सहि न जाइ जोबन कर भारू॥ जोबन अस मइमंत न कोई। नवइ हसति जउ आँकुस होई ॥ जोबन भर भादउ जस गंगा। लहरइ देइ समाइ न अंगा॥ दोप। परिउँ अथाह धाइ हउँ जोबन उदधि गंभौर । तेहि चितवउँ चारि-हु दिसि को गहि लावइ तौर ॥ १७३ ॥ धादू = धाचौ =धाई। सिंघ सिंह। बरु = वरम् = अच्छा। खातेउ = खाता ( खाट्ट भक्षणे से बना है)। मारौ =मार कर = मारयित्वा। कदू = कि = या = अथवा। तसि = तथा = तैसी। रहति = रहती (रह त्यागे से बना है)। श्राहि = श्रासौत् = थौ जम = यथा = जैमौ। बारौ वालिका= लडकौ = थोडे उमर की। जोबन = यौवन जवानौ। सुनउँ = सुना (श्रु श्रवणे से बना है)। नवल = नया। वसंत = वसन्त क्त, यहाँ वसन्त-ऋतु का वन । बन = वन । परेउ = पडा (प्र-उपसर्ग पूर्वक पत पतने के वना है)। हसति = हस्तौ = हाथी। ममंतू = मदमत्त मद से मम्त । अब = अधुना इदानीम् । बारी-वालिका = वाल, वा वाटिका। को = कः= कौन । राखा = रक्खे = रक्षेत् । कुंजल = कुञ्चर = हस्तौ = हाथौ। बिरह = विरह = पति की जुदाई। विधाम विध्वंसयति = विध्वंस करता है = नाश करता है। माखा = शाखा = डार । महूँ मैं ने। जान = जाना (ज्ञा अवबोधने से बना है)। भोगू = भोग । संताप = मन्ताप = ताप ।