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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६०

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पदुमावति । १ । असतुति-खंड । [--& दोनों शब्द एक-हो अर्थ के बोधक एक के अपेक्षा एक व्यर्थ पड़ जाते हैं ॥ न उस को स्थान है, और उस के विना कोई स्थान-ही नहीं है, अर्थात् वह सर्वत्र व्याप्त है। रूप और रेखा (चिन्ह ) के विना वह है, दूसौ से उस का निर्मल, मल कर के रहित, अर्थात् सच्चिदानन्द नाम पड़ा है। न वह किसी से मिला है न किसी से अलग है, (संमार में) ऐसा भरा पूरा हो रहा है, कि देखने-वालों के तो नौअरे (नगौच ) है, और अन्धे मूर्ख को दूर ॥ ८ ॥ चउपाई। अउरु जो दोसि रतन अमोला। ता कर मरम न जानइ भोला ॥ दौसि रसना अउ रस भोगू। दौसि दसन जो विहँसइ जोगू ॥ दौसि जग देखइ कह नयना। दोन्हैसि सवन सुनइ कहँ बयना ॥ दोन्स कंठ बोलि जेहि माँहा। दोन्हैसि कर-पल्लउ बर बाँहा ॥ दोन्हसि चरन अनूप चलाहौँ। सो पइ मरम जानु जेहि नाही ॥ जोबन मरम जानु पइ बूढा। मिला न तरुनापा जग ढूँढा ॥ दुख कर मरम न जानइ राजा। दुखौ जान जा कहँ दुख बाजा ॥ दोहा। कया क मरम जानु पइ रोगी भोगी रहइ निचिंत। सब कर मरम गोसाई जानइ जो घट घट मँह निंत ॥६॥ दशन = - रतन रत्न । अमोला = अमूल्य । भोला = सौधा आदमौ, भोलना । रसना = जिहा। दसन दन्त । वयना=वचन । कर-पल्लउ = कर-पल्लव = अङ्गुलौ। बर = -श्रेष्ठ बाहाँ = बाहु। चलाहौँ = चलते हैं। तरुनापा=जवानौ। बाजा = शब्द किया वा बजनौ किया = लडाई किया। कया = काय = शरीर। निचिंत = निश्चिन्त = विना चिन्ता का। निंत = नित्य । और उस ईश्वर ने (इन्द्रिय-रूपौ) अमूल्य रत्न को जो दिया है, सौधा आदमी उस के मर्म को नहीं जानता ॥ (देखो) जिका को दिया, और उस के भोग के लिये अनेक रस को दिया। दाँते को दिया जो हमने के योग्य हैं ॥ संसार को देखने के लिये नेत्र को दिया । वचन को सुनने के लिये कान को दिया। कण्ठ को दिया जिस