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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६४५

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२४३ - २88 ] सुधाकर-चन्द्रिका। ५२० स्वर्ग। दुबारा द्वार चढत जनु =जाने = जानौँ । दौत्रा = दौप = चिराग । खोजि लौन्ह = खोज लिया = ढूंढ लिया। मो= वह । सरग दरवाजा। बजर = वज्र। मूंदे = मुद्रित थे बंद थे। जाप्र= जादू (याति) यहाँ जाण = गए। उघारा = उहटित खुला ॥ बाँक = वक्र = टेढा । चढाउ = चढाव (उच्चलन ) । गढ = गाढ = किला = दुर्ग । -चढते (उच्चलन्) । गण्उ होइ = हो गया। भोर = व्यह = सबेरा । भद् = = भई ( बभूव) = हुई। पुकार = हँकार (पुं-वा ई-कार ) । ऊपर = उपरि। चढे = चढदू (उच्चलति, श्रारोहति) का प्रथम पुरुष, भूत-काल, पुंलिङ्ग का बहु वचन । मैंधि = सन्धि । देव = दे कर (दत्त्वा)। चोर = चौर ॥ महादेव की सेवा करने से जो (रत्न सेन को) पथ (राह) मिला था ( २१६- २२० दोहे को देखो) वह मुद्रित, अर्थात् बंद था, उसी को (रत्न-सेन ) धंस कर लेता है, अर्थात् लेना चाहता है। जहाँ पर वह विषम और अगाध कुण्ड था, वहाँ पर जा कर पडा, जहाँ कि थाह नहीं पाता है। (कवि कहता है कि,) प्रेम के लाग, अर्थात् प्रेम के लगने से ( मनुष्य) पागल और अंधा हो जाता है, सामने-हौ धंसता है, भागे, अर्थात् सामने, कुछ भी नहीं सूझता है कि, (भाग है कि पानी) । (रत्न-सेन ने ) धंस कर (राह को) लिया, अर्थात् राह को पा गया, मन में श्वास को मार लिया, अर्थात् हृदय के भीतर श्वास को रोक लिया, (और) गुरु मोछंदर-नाथ को सँभारा, अर्थात् स्मरण किया (मोछंदर-नाथ के लिये १६ ३ दोहे की टौका देखो)। (कवि कहता है कि) चेला गिर पडे (तो भी गुरु का) पौका नहीं छोडता, गुरु कच्छप ऐसा (अचल ) होता है और चेला मछली के ऐसा (चञ्चल)। जैसे गोताखोर समुद्र में घुस कर (तोत्र दृष्टि से देख कर मोती को) लिया, अर्थात् निकाल लेता है (उसी तरह रत्न सेन के ) नयन खुल गए जानों दीप बरे (ऐसे तीव्र हो गए)। सो (रत्न-सेन ने ) स्वर्ग, अर्थात् ऊपर चढने का दरवाजा खोज लिया, जो दरवाजे वज्र (कपाट) से बंद थे खुल गए । गढ के वर्ग, अर्थात् ऊपर जाने के लिये ( बहुत) टेढा ( कठिन ) चढाव था, चढते चढते भोर हो गया, (चौकीदारों को) पुकार हुई कि, चोर सेंध दे कर ऊपर चढे हैं ॥ २४३ ॥ चउपाइ। पढे॥ राजइ सुना जोगि गढ चढे। पूछौ पास पंडित जो जोगी गढ जो सँधि देइ आवहिँ। कहहु सो सबद सिद्धि जिन्ह पावहिँ।