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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६४७

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२४४] सुधाकर-चन्द्रिका। बह-वचन । 1 का दोखू = दोष = पाप । पुकारि = पुकार कर (पुंकृत्य वा इंकृत्य )। वेधि = वेध कर (विवा)। घर = ग्रह । मूंसा = मस = मुमहिं (मुष्णन्ति ) = मूमते हैं। खोलहिं खोल (उहाटयति) का राज-भंडार = राज-भाण्डालय = राजा के भंडार का घर, जहाँ सब चौज रहती है। मॅजूमा = मा मञ्जूषा -संदूक ॥ जदूस = यथा =जैसे। भंडारहि = भंडारे को। चढहि = चढदू (उच्चलति, आरोहति ) बहु-वचन । रनि = रजनी रात । तस = तथा = तैसे । चहित्र = चाहिए । पुनि = पुनः = फिर। उन्ह कह = उन को। मारहु =मारो (मारयत ) ॥ राजा (गन्धर्व-सेन) ने सुना कि, योगी गढ पर चढ गए हैं, (दूस विषय पर विचार करने के लिये कि, क्या किया जाय) पाम में (बैठे) पढे (लिखे ) जो पण्डित लोग थे (उन से बात) पूछी कि, जो योगी लोग सँध दे कर गढ में आ रहे हैं (उन के विषय में) उम बात को कहो (जिस से) वे लोग सिद्धि को पावें, अर्थात् जिस से उन लोगों को मुक्ति मिले। (वेद) कहते हैं और विज्ञ पण्डित लोग भी पढा करते हैं कि योगी वैशा-ही होते हैं जैसा कि मालती का भेदिवा भ्रमर, अर्थात् जैसे भ्रमर मालती को ढूंढ लेता है उसी तरह योगौ लोग भी अपने अभीष्ट को ढूँढ लेते हैं। जैसे चोर सेंध दे कर (तब) शिर डालता है, वैसे-हौ ए दोनों (योगी, और भ्रमर) भी जीव पर खेलते हैं । ए वेद में जैसा लिखा है उस राह पर नहीं चलते, स्वर्ग पर, अर्थात् ऊपर, चढ गए हैं, (ए) सूली पर चढना मौखे हैं, अर्थात् इस बुरे काम से सूली पर चढाए जायँगे। चोर को सूली-ही पर मोक्ष होता है, अर्थात् सूली पर चढा देने से उस का पाप दूर हो जाता है। (दूस चिये उन के पाप को निवृत्ति के लिये) जो सूली देता है उसे दोष नहीं होता। चोर लोग पुकार कर, अर्थात् ललकार कर, (भीत को) बेध कर घर मूसते हैं और राज- भंडारे की संदूकों को खोल डालते हैं । जिस तरह से ए राज-भंडारे को मूसते हैं और रात को मैंध दे कर ( ऊपर) चढ जाते हैं; उसी तरह उन को भौ (ऊपर चढाना) चाहिए, सो सूली से वेध कर (उन लोगों को) मार डालो ॥ सूली (शूची) त्रिशूलाकार होती थी जिस पर अपराधी चढा दिया जाता था, फिर खटका खौं च लेने से त्रिशूल कण्ठ को छेदते शिर के ऊपर निकल जाता था ॥ २४४ ॥ इति राज-दुर्गावरोधनं नाम चयोविंश-खण्डं समाप्तम् ॥ २३ ॥ -- 67