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पृष्ठ:पदुमावति.djvu/६९५

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२६६ - २६७] सुधाकर-चन्द्रिका। योगी लोग परब्रह्म के प्रेम में डूब कर नीचे से षट् चक्र और श्रष्ट कमलों में क्रम क्रम से प्राण चढाते जब ब्रह्मगुफा के पास ब्रह्माण्ड में प्राण को ले जाते हैं तब अप्सरा-उर्वशी और काम की तरह तरह की मन हरने-वाली लौला सब उस योगी के प्राण को ऊपर न चढने के लिये विघ्न करते हैं। उस घडी जो योगी न घबडाय और उस लौला में फंस कर अपने को फाँसी पर न चढावे तो ब्रह्म-रन्ध्र में अपने प्राण को घुमा कर, उस परब्रह्म के दर्शन को पा कर, आप सच्चिदानन्द हो जाय और प्रकृति-रूप पद्मावती से भेंट कर सायुज्य मुक्ति को पावे। इस लिये मलिक महम्मद ने यहाँ रूपकालङ्कार किया है योगी रत्न-सेन ब्रह्मगुफा के दरवाजे पर श्रा चुका है, राजा गन्धर्व-सेन को फाँसौ-लोला अमरा-उर्वशी इत्यादि लोला के समान हैं जिन्हें देख कर कुछ भी नहीं डरता। जिस प्रकृति-परब्रह्म-रूप पद्मावती के ध्यान में मन है उस के बल से उन लोगों को शूली-रचना से कुछ भी नहीं डरता है, बल्कि इस तुच्छ शूली को देख कर हँसता है कि मैं तो श्राप मरने पर अर्थात् इस मलिन काया के छोडने पर तयार हूँ, शूली की मुझे क्या डर है ॥ २६६ ॥ चउपाई। कहहिँ सव॑रु जेहि चाहसि सवरा। हम तोहि करहिँ केति कर भवरा ॥ कहेसि ओही सवरउँ हरि फेरा। मुअइँ जित आहइँ जेहि केरा ॥ जहाँ सुनउँ पदुमावति रामा। यह जिउ नैवछावरि तेहि नामा ॥ रकत क बूंद कया जत अहहौं। पदुमावति पदुमावति कहहौँ । रहहिँ त बूंद बूंद मँह ठाऊँ। परहिँ त सोई लेइ लैइ नाऊँ ॥ रोथ रोग तनु ता सउँ आधा। सूतहि सूत बेधि जिउ सोधा ॥ हाहि हाड सबद सो होई। नस नस माँह उठइ धुनि सोई ॥ दोहा। खाइ बिरह गा ता कर गूद माँसु कइ खान । हउँ होइ साँच रहा अब वह होइ रूप समान ॥२६७॥ 73