पुरानी हिंदी ४१ मानुसडा--सवध कारक के ' और 'टा' ने यि देशो (१) डी--दसा एकवचन के लिये स्त्रीलिंग है, टा-बहुवचन । यः-दोती, हवं, ह्र । सुनिया--कर्मवान्य । निम्नविचार-निर्मित को गई [म. निर्मापितानि] प्रेरणायंक में प (ब) के निचे देयो नाप्र० पत्रिका, भाग १, श्रा ४, पृ० ५०७, टिप्पणी ११। मजन्म-मेरे, मनन में नुन्य, मा चतुर्थी है, चतुर्थी और पाठी का प्रयोग वैदिक भाषा में बिना भेद होना था, वैदिक भाषा मे तुभ्य पाठी के अर्थ में मी पारा है.---मम नुय च सवननं तदग्निग्नुमन्यताम् । मह, कतहह नबध गरका निह । इक्कज मे ज 'ही' या 'केवल' के अर्थ में है, मारवाडी मे मना जैसे, आप रोज काम, एकन झूपो (भोपा) । अरि-गरी, प्रारी (सं०७), टानी के अनुसार उपरि (ऊपर, अधिक) नहीं । नत्राहि--ना ओरहि, हिंदी 'और' अपर ( = अवर) में बना है, म. १९२२ नर पुराने पडित अवर लिखा करते थे-प्रवर जव अरमा होर। नर (एक पत्र ) । लिद्ध-लन्ध, मारवाडी, गुजराती, लोधो । हग्यिार--रगेगः । मरते समय भोज ने कहा था कि श्मशान यात्रा के समर मेरे हार अरबी के बाहर रक्खे जायें । भोज का यह वचन लोगो में एक बेधा ने रहा--- कसु करु रे पुन्न कलन धी कमु कार रे क मग यादी। एकला पाइयो एकला जाइवो हायपग ये भी ।। अर्थ-- अरे, पुन, स्त्री, कन्या किमके है' ऐनी बारी विमरे (या सारा वाग किसका?) अकेला पाना है और दोनो हार पांच झटकार कर अकेला जाना है। 'कसु करु' का अर्य टानी ने 'किमका हाथ' किया है और मान्यो ने 'धया करूं, 'पुत्र कलव' को दोनो ने नबोधन माना है, धी गो दोनो भून गए। कसु करु-किमका (स० ० काम्य करक ) शी-टी. मोरर (११); करतण--खेतो, या कृत्स्न (गान्त्री) । माइयो, जानी-माना FTTT (टानी) । वे-दो। (१६) सिद्धराज जयनिह समुद्र के निारे दहा रे नन उनकी स्तुति में कविता कही जिनमे ने एक नोरला (1 दिया - →