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पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/३१३

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देव मंदिर के प्रति हमारा कर्तव्य ] २९१ जाति के भगवद्भक्त, जगहितैषी, गुणी और दरिद्रियों को सहायता मिल । जो लोग ऐसे मंदिरों को किसी एक जन अथवा कुटुम्ब का स्वाम्य समझते हैं वे न्याय के गले पर छुरी फेरते हैं और प्राचीन मान्य पुरुषों के सद्विचार की बिडंबना करते हैं। शास्त्रों में नवीन देवालय बनवाने की अपेक्षा प्राचीन मंदिर के जीर्णोद्धार का अधिक फल यही व दशित करने के हेतु लिखा गया है कि वह किसी एक का नहीं किंतु सर्वसाधारण का है। यों तो ईश्वर समस्त संसार का स्वामी है इस न्याय से ईश्वर संबंधी यावत् वस्तु पर सारे संसार का अधिकार है और वह संसारी मात्र के ममत्व का आधार है। पर यतः जगत में जहां शांति है वहाँ विघ्न भी है। जहाँ सुख है वहाँ दुःख भी है। इससे ऐसी आशा करना व्यर्थ है कि सदा सब कही सत्य ही अवलम्बन किया जायगा और सभी लोग सचमुच सबको जगतपिता के नाते अपना सहोदर तथा सबके स्वत्व को अपना सा समझंगे। तथापि यह तो अवश्य ही होना चाएि कि प्रत्येक समदाय के यावत् व्यक्ति, वस्तु एवं स्थान मात्र को उस समूह के सबके सब लोग अपना समझें । यदि ऐसा न हो तो किसी जाति का निर्वाह न हो और सारी सृष्टि बहुत शीघ्र नष्ट हो जाय। इसी विचार से जिन देशों और समुदायों मे ईश्वर की दया है उनके सब लोग अपने यहां के सब प्राणी अप्राणियों को अपना समझते हैं। पर अभाग्यवशतः हिंदुओं के कपाल में मस्तिष्क और वक्षस्थल में हृदय जब से नहीं रहा तब से अन्यान्य सद्गुणों के साथ ममता का भी अभाव हो गया है। इन्हें न अपने देश की ममता, न अपनी जाति का ममत्व, न अपने आत्मीयों का मया, न अपने देश गौरव का मोह । बस इसी से यह निबरे के ज्वैया सबके सरहज' का जीवित उदाहरण बन गए हैं। जो जिसके जी में माता वही इनके साथ मनमाना बर्ताव कर उठाता है और यह मुंह बाए रह जाते हैं अथवा फुसला दिए जाते हैं। नहीं तो जिस राजराजेश्वरी विजयिनी के राज्य की परम शोभा और सच्चे अहंकार का स्थल यही है कि प्रजामात्र निविघ्न रूप से अपने धर्म का सेवन कर सकें, कोई किसी के ईश्वर संबंधी कार्य में हस्तक्षेप न कर सके उसी भारश्वरी को छाया का आश्रय लिए हुए हिंदुओं की देवमूर्तियां और देवमंदिर तोड़ते समय स्वयं राज कर्मचारियों को संकोच न आवे यह क्या बात है ? यही कि जिस जाति को अपनी आप ममता नहीं उस पर दसरों को क्या ममत्व वस्ततः देवमंदिर बा देवप्रतिमा पाषाण, धातु, दादि का विकार है और जिन वेद मंत्रों से उनमें प्राण प्रतिष्ठा होती है वे भी केबल शब्द हैं जिनके अर्थों में सदा से झगड़ा चला आया है और चला जायगा। उनकी महिमा केवल हमारे स्नेह की महिमा है और उनकी सामर्थ्य वेवल हमारे हृदयों में अपने देवताओं और उनकी मूर्ति, मंदिरादि को भक्ति है। भक्ति नहीं रही तभी से उनमें भी हमारे धार्मिक स्वत्व तथा अपने अस्तित्व के संरक्षण की शक्ति नहीं रही। जिन दिनों अलाउद्दीन और औरंगजेब आदि मनमौजी महोशों ने अयोध्या मथुरादि में इस प्रकार का दुराचार किया था उन दिनों भी हमें कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिला कि हिंदुओं ने प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार के बम प्रहार को सहन कर लिया हो। पर करते क्या ? इधर तो देश में पारस्परिक ममत्व नही, राम