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पृष्ठ:प्रतापनारायण-ग्रंथावली.djvu/४५८

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[ प्रतापनारायण-ग्रंथावली
 

[ प्रतापनारायण-प्रपाली काया के निकम्मेपन में क्या संदेह है और ऐसी दशा में दिल और दिमाग निदोष न हों तो पामयं क्या है ! पर से आपको अपने देश के जलवायु के अनुकूल माहारबिहार आदि आदि नापसंद ठहरे। इससे और भी तन्दुरुस्ती में नेचर का शाप लगा रहता है । इसपर भी गो कोई रोग उभा माया तो चौगुने दाम लगा के, अठगुना समय गवां के विदेशी हो औषधि का व्यवहार करेंगे, जिसका फल प्रत्यक्ष रूप से चाहे अच्छा भी दिखाई दे पर वास्तव में धन और धर्म ही नहीं बरंच देशीयरहन के विरुद्ध होने से स्वास्थ्य को भी ठीक नहीं रखता, जन्म-रोगीपने की कोई न कोई डिग्री अवश्य प्राप्त करा देता है। यदि सो जटिलमैन इकट्ठे हों तो कदाचित ऐसे दस भी न निकलेंगे जो सचमुच किसी ऐसे राजगरो को कुछ न कुछ शिकायत न रखते हों। इस दशा में हम कह सकते हैं कि आपरूप का शरीर तो स्वतंत्र नहीं है, डाक्टर साहब के हाथ का खिलौना है। यदि भूख से अधिक डबल रोटी का चौथाई भाग भी खा लें या ब्रांडी देवी का चरणोदक आधा आउंस भी पी लें तो मरना बीमा ईश्वर के आधीन है, पर कुछ दिन वा घंटों के लिए जमपुरी के फाटक तक अवश्य मावैगे, और वहां कुछ भेंट चढ़ाए और 'हा हा हू हू' का गीत गाए बिना गलौटेंगे । फिर कौन कह सकता है कि मिस्टर विदेश दास अपने शरीर से स्वतंत्र हैं ? और सुनिए, अब वह दिन तो रहे ही नहीं कि देश का धन देश ही में रहता हो, और प्रत्येक व्यवसायी को निश्चय हो कि जिस वर्ष धंधा चल गया उसी वर्ष, वा जिस दिन स्वामी प्रसन्न हो गया उसी दिन सब दुःख दरिद्र टल जायंगे। अब तो वह समय लगा है कि तीन खाओ तेरह की भूख सभी को बनी रहती है। रोजगार व्यवहार के द्वारा साधारण रीति से निर्वाह होता रहे यही बहुत है। विशेष कार्यों में व्यय करने के अवसर पर आजकल सैकड़ा पीछे दश जने भी ऐसे नहीं देख पड़ते जो चिता से व्यस्त न हो जाते हों। इस पर भी हमारे हिन्दुस्तानी साहब के पिता ने सपूत जी के पढ़ाने में भली चंगी रोकड़ उठा दी है। इधर आपने जब से स्कूल में पांव रक्खा है तभी से विलायती वस्तुओं के व्यवहार की लत ढाल के खर्च बढ़ा रक्खा है। यों लेक्चर देने में चाहे जैसी सुन लोजिए पर बर्ताव देखिए तो पूरा सात समुद्र के पार ही का पाइएगा। इस पर भी ऐसे लोगों की संख्या इस देश में अब बहुत नहीं है जो धाए धुपे बिना अपना तथा कुटुम्ब का पालन पोषण कर सकते हों। इससे बाबू साहब को भी पेट के लिए कुछ करना पड़ता है, सो और कुछ न कर सकते हैं न करने में अपनी इज्जत समझते हैं । अतः हेर फेर कर नौकरी हो की शरण सूझती है। वहां भी काले रंग के कारण इनको विद्या बुद्धि का उचित आदर नहीं । ऊपर से भूख के बिना भोजन करने में स्वास्थ्य नाश हो, खाने के पीछे झपट के चलने से रोगों की उत्पत्ति होती हो तो हो, पर डिउटी पर ठीक समय में न रहुचे तो रहें कहाँ ?