सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(१४४ )


हमारी समझ में तो आस्तिक मात्र को किसी से द्वेष बुद्धि रखना पाप है, क्योंकि सब हमारे जगदीश ही की प्रजा हैं, सब हमारे खुदा ही के बन्दे हैं । इस नाते सभी हमारे आत्मीय बन्धु हैं पर शैव समाज का वैष्णव और शाक्त लोगों से विशेष सम्बन्ध ठहरा। अतः इन्हें तो परस्पर महा मैत्री से से रहना चाहिये। शिवमूर्ति में अकेली गंगा कितना हित कर सकती हैं इसे जितने बुद्धिमान जितना विचारें उतना ही अधिक उपदेश प्राप्त कर सकते हैं । इस लिये हम इस विषय को अपने पाठकों के विचार पर छोड़ आगे बढ़ते हैं।

बहुत मूर्तियों के पांच मुख होते हैं जिससे हमारी समझ में यह आता है कि यावत संसार और परमार्थ क तत्व तो चार वेदों में आपको मिल जायगा, पर यह न समझियेगा कि उनका दर्शन भी वेद विद्या ही से प्राप्त है। जो कुछ चार वेद सिखलाते हैं उससे भी उनका रूप उनका गुण अधिक है। वेद उनकी बाणी है। केवल चार पुस्तकों पर ही उस वाणी की इति नहीं है। एक मुख और है जिसकी प्रेम- मयी बाणी केवल प्रेमियों के सुनने में आती है। केवल विद्या- भिमानी अधिकाधिक चार वेद द्वारा बड़ी हद्द चार फल (धर्मार्थ काम मोक्ष) पा जायगे, पर उनके पंचम मुख सम्बन्धी सुख औरों के लिये है।

शिवमूर्ति क्या है और कैसी है यह बात तो बड़े बड़े ऋषि मुनि भी नहीं कह सकते हम क्या हैं। पर जहां तक