सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(१५९ )


अवसर पर आज कल सैकड़ा पीछे दश जने भी ऐसे नहीं देख पड़ते जो चिंता से व्यस्त न हो जाते हों । इस पर भी हमारे हिन्दुस्तानी साहब के पिता ने सपूतजी के पढ़ाने में भली चंगी रोकड़ उठा दी है।

इधर आपने जब से स्कूल में पांव रक्खा है तभी से विलायती वस्तुओं के व्यवहार की लत डालके खर्च बढ़ा रक्खा है। यों लेकचर देने में चाहे जैसी सुन लीजिए, पर बर्ताव देखिए तो पूरा सात समुद्र के पार ही का पाइएगा! इस पर भी ऐसे लोगों की संख्या इस देश में अब बहुत नहीं है, जो धाए धूपे बिना अपना तथा कुटुम्ब का पालन कर सकते हों । इससे बाबू साहब को भी पेट के लिए कुछ करना पड़ता है, सो और कुछ न कर सकते हैं, न करने में अपनी इज्जत समझते हैं। अतः हेर फेरकर नौकरी ही की शरण सूझती है । वहां भी काले रंग के कारण इनकी विद्या-बुद्धि का उचित आदर नहीं । ऊपर से भूख के बिना भोजन करने में स्वास्थ्य-नाश हो, खाने के पीछे झपट के चलने से रोगों की उत्पत्ति हो, तो हो, पर डिउटी पर ठीक समय में न पहुंचे तो रहें कहां ?

बाजे २ महकमों में अवसर पड़ने पर न दिन छुट्टी न रात छुट्टो, पर छुट्टी का यत्न करें तो नौकरी ही से छुट्टी हो जाने का डर है । इस पर भी जो कहीं मालिक कड़े मिजाज का हुवा तो और भी कोढ़ में खाज है, पर उसकी झिड़की