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पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/१७७

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हां, हमसे सुनो, आप वेद-शास्त्र-पुराणादि पर राय देने में स्वतंत्र हैं, संस्कृत का काला अक्षर नहीं जानते, हिन्दी के भी साहित्य को खाक धूल नहीं समझते, पर इसका पूरा ज्ञान रखते हैं कि वेद पुराने जंगलियों के गीत हैं, वा पुराण स्वार्थियों की गढ़ी हुई झूठी कहानियां हैं, धर्मशास्त्र में ब्राह्मणों का पक्षपात भरा हुआ है, ज्योतिष तथा मन्त्र-शास्त्रादि ठगविद्या हैं । ऐसी २ बे सिर-पैर की सत्यानाशी रागिनी अलापने में स्वतंत्र हैं। यदि ऐसी बातें इन्हीं के पेट में बनी रहें तो भी अधिक भय नहीं है, समझनेवाले समझ लें कि थोड़े से आत्मिक रोगी भी देश में पड़े हैं, उनके लुढ़कते ही 'खसकम जहान पाक' हो जायगा । पर यह स्वतंत्रता के भुक्खड़ व्याख्यानों और लेखों के द्वारा भारत-संतानमात्र को अपना पिछलगा बनाने में सयत्र्न रहते हैं, यही बड़ी भारी खाध है।

यद्यपि इनके मनोरथों की सफलता पूरी क्या अधूरी भी नहीं हो सकती, पर जो इन्हीं के से कच्ची खोपड़ी और विलायती दिमागवाले हैं वह बकवास सुनते ही अपनी बनगैली चाल में दृढ़ हो जाते हैं, और 'योंहीं रुलासी बैठी थी ऊपर से भैया आगया' का उदाहरण बन बैठते हैं, तथा इस रीति से ऐसों की संख्या कुछ न कुछ बढ़ रहती, औरहै सम्भव है कि योंही ढचरा चला जाय तो और भी बढ़कर भारतीयत्व के पक्ष में बुरा फल दिखावै।

वहीं विदेश के बुद्धिमान तनिक भी हमारे सद्विद्या-भंडार