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पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/२०

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के उपहासास्पद व्यवहार पर अथवा चरित्र पर पड़ती है तो परिहासप्रिय तबीयतवाले को तुरंत इस बात का अनुभव हो जाता है कि उस आदमी की चाल-ढाल में तथा आंतरिक मानसिक प्रवृत्ति में कहाँ तक वास्तविक तथ्य है। इसके सिवाय मनमौजी आदमी कभी किसी विषय पर विचार करते समय अत्यधिक गंभीर नहीं होता। उसके हिसाब से संसार के विभिन्न व्यापार क्रीड़ा-मात्र हैं और संसार एक विस्तृत क्रीड़ा-स्थल है।

एवं मतमतांतरों के वितंडावाद को वे कोरी बक-झक समझते थे। धर्म के नाम पर जो नित्य व्यर्थ के आडंबर रचे जाते हैं और जिनके कारण बखेड़े खड़े हुआ करते हैं उनके प्रति प्रतापनारायण जी घृणा रखते थे। मतवादियों के लिए तो वे यहाँ तक कह गये हैं कि-'वे अवश्य नर्क जावेंगे।' इस शीर्षक के लेख में कहते हैं :-

“••••••एक पुरुष ईश्वर की बड़ाई के कारण उसे अपना पिता मानता है, दूसरा उसके प्रेम के मारे उसे अपना पुत्र कहता है। इसमें दूसरे के बाप का क्या इजारा है••••••"

बहुत वर्षों से अथवा बहुत पीढ़ियों से जो विश्वास एक के जी पर जमा हुआ है उसे उखाड़ कर उसके ठौर पर अपना विचार रक्खा चाहते हैं। भला इससे बढ़ कर हरि-विमुखता क्या होगी ? और ऐसे विमुखों को भी नरक न हो तो ईश्वर के घर में अंधेर है।

अर्थात् प्रतापनारायण जी संगठितरूप में सामुदायिक