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पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/२२४

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(२१३)
(२०)
धर्म ग्रंथ अनुसार अहो तुम पूजनीय परतिष्ठा धाम ।
पै अब कलि प्रभाव गारी सम समभयो जात तिहारो नाम ।।
ताहू पर तव घर पलि कै हम भये अशिष्ट विदित सब ठाम ।
याते डरत डरत कहियत हैं एहो नाना तृप्यन्ताम ।।
(२१)
अवसर परे लुटाय दियो घर बिन स्वारथ खोई न छदाम ।
धन बल धरम मान मरजादा उलँघि कियो नहिं एकौ काम ।।
याते तव कर थित मुख जीवन मरन अनन्तर अचल अराम ।
होत कहा जु कहैं हम नाहिंहु परमातामह तृप्यन्ताम ।।
(२२)
भोजन भाषा भेष भाव जे तुम कहं भावत रहे मुदाम ।
तिन सबते प्रतिकूल सबै विधि हम व्यवहरत रहैं बसु जाम ॥
याते तुम्हरी तुष्टि करन महं कहं समरथ हम सम अघ धाम ।
वृद्ध प्रमातामह भव केवल स्वधा शब्द सुनि तृप्यन्ताम ।।
(२३)
हमरे जनम समय तुम मन महं मान्यों अति अनन्द अभिराम ।
पै किशोरपन के लच्छन लखि रह्यौ न होहै वाकों नाम ।।
अब तो औरहु नष्ट भ्रष्ट लै भोगहिं हम निज कृति परिणाम ।
कौन आसरो हमते हैहौ हे मातामहि तृप्यन्ताम ॥
(२४)
तुम जब रहीं रह्यौ तब सतयुग सुखित सुछंद साधु नर वाम ।