सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

(३८)


लावनियाँ तथा अन्य बहुत स्फुट कवित्त और सवैये हैं। 'बुढ़ापा' में बुढ़ापे की शारीरिक तथा मानसिक जर्जरता का जो सजीव वर्णन है वह किसे भूल सकता है?

सामयिक रचनाओं में 'नया संवत्सर', 'ब्रैडला स्वागत', 'युवराज-स्वागत', 'विक्टोरिया की जुबली', 'कानपुर-माहात्म्य' शीर्षक आल्हा आदि हैं। ये सब अपने ढँग के काफी अच्छे हैं।

शिक्षाप्रद कविता कहीं कहीं बड़ी उच्चकोटि की है। 'तृप्यताम्', 'बाँ बाँ करि तृण दाबि दाँत सों दुखित पुकारत गाई है', 'बसंत', 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान', 'क्रंदन', 'शरणागत पाल कृपाल प्रभो' इत्यादि बड़ी उत्तम तथा भावपूर्ण हैं।

इस प्रसंग में अधिक कहने का स्थान नहीं है। आगे चल कर उनकी कविताओं का जो संग्रह है और उन पर छोटी छोटी जो टिप्पणियाँ की गई हैं उनसे वाचकों का मनोविनोद होगा और उनसे वे स्वयं प्रतापनारायण जी की नैसर्गिक सरसता का अंदाज़ा कर सकेंगे।

हाँ, इतना कहेंगे कि मिश्र जी उस प्रकार के कवियों में हैं जिनमें जन्म-सिद्ध सहृदयता तथा काव्योचित मार्दव रहता है, परंतु साथ ही साथ जिनके चित्त में सामाजिक हित-प्रेरणा के भाव अधिक बलवान रहते हैं। एवं, यदि वे ईश्वर-दत्त काव्य-प्रतिभा का उपयोग करते हैं तो इस उद्देश्य से ही करते हैं कि अपनी कृतियों द्वारा समाज का नैतिक कल्याण हो। इस