सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रताप पीयूष.djvu/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

(६३ )


कि एक महात्मा ने किसी जिज्ञासु को भलीभांति समझा दिया था कि विश्व में जो कुछ है, और जो कुछ होता है, सब भ्रम है। किन्तु यह समझाने के कुछ ही दिन उपरांत उनके किसी प्रिय व्यक्ति का प्राणांत हो गया, जिसके शोक में वह फूट २ कर रोने लगे। इसपर शिष्य ने आश्चर्य में आकर पूछा कि आप तो सब बातों को भ्रमात्मक मानते हैं, फिर जान बूझकर रोते क्यों हैं? इसके उत्तर में उन्होंने कहा कि रोना भी भ्रम ही है। सच है! भ्रमोत्पादक भ्रम स्वरूप भगवान के बनाये हुए भव (संसार) में जो कुछ है भ्रम ही है। जबतक भ्रम है तभी तक संसार है, बरंच संसार का स्वामी भी तभी तक है, फिर कुछ भी नहीं! और कौन जाने हो तो हमें उससे कोई काम नहीं! परमेश्वर सब का भरम बनाये रक्खे, इसी में सब कुछ है। जहां भरम खुल गया, वहीं लाख की भलमंसी खाक में मिल जाती है। जो लोग पूरे ब्रह्मज्ञानी बनकर संसार को सचमुच माया की कल्पना मान बैठते हैं वे अपनी भ्रमात्मक बुद्धि से चाहे अपने तुच्छ जीवन को साक्षात् सर्वेश्वर मानके सर्वथा सुखी हो जाने का धोखा खाया करें, पर संसार के किसी काम के नहीं रह जाते हैं, बरंच निरे अकर्ता, अभोक्ता बनने की उमंग में अकर्मण्य और "नारि नारि सब एक हैं जस मेहरि तस माय,” इत्यादि सिद्धान्तों के मारे अपना तथा दूसरों का जो अनिष्ट न कर बैठें वहीं थोड़ा है, क्योंकि लोक और परलोक का मजा भी धोखे ही में पड़े रहने से प्राप्त होता है। बहुत ज्ञान छांटना सत्यानाशी की जड़ है! ज्ञान