पृष्ठ:प्रतिज्ञा.pdf/१२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
प्रतिज्ञा

थे; पर उनकी पत्नी अमृतराय के प्रति इतनी श्रद्धा रक्खे और हृदय में न रखकर उसकी दुहाई देती फिरे, ज़रा भी चिन्ता न करे कि इसका पति पर क्या प्रभाव होगा, यह स्थिति दुस्सह थी। अमृतराय अगर बोल सकते थे, तो दाननाथ भी बोलने का अभ्यास करेंगे; और अमृतराय का गर्व मर्दन कर देंगे, उसके साथ ही प्रेमा का भी। वह प्रेमा को दिखा देंगे कि जिन गुणों के लिए तू अमृतराय को पूज्य समझती है, वे गुण मुझमें भी हैं; और अधिक मात्रा में।

इस भाँति ऐसे दो मित्रों में विद्वेष का सूत्रपात हुआ जो बचपन से अभिन्न थे। वह दो आदमी, जिनकी मैत्री की उपमा दी जाती थी, काल की विचित्र गति से, दो प्रतिद्वन्दियों के रूप में अवतरित हुए। एक सप्ताह तक दाननाथ कॉलेज न गये। न खाने की सुधि थी, न नहाने की। सारे दिन कमरे का द्वार बन्द किये, हिन्दू-धर्म की रक्षा पर एक हिला देनेवाली वक्तृता तैयार करते रहे। एकान्त में सामने आइना रखकर, कई बार सम्पूर्ण व्याख्यान दे डाला। व्याख्यान देते हुए अपनी वाणी के प्रवाह पर उन्हें---स्वयं आश्चर्य होता था। सातवें दिन शहर में नोटिस बँट गया---'सनातन-धर्म पर आघात' इस विषय पर महाशय दाननाथ का टाउन हाल में व्याख्यान होगा। लाला बदरीप्रसाद सभापति का आसन सुशोभित करेंगे।

प्रेमा ने पूछा---क्या आज तुम्हारा व्याख्यान है? तुम तो पहले कभी नहीं बोले।

दाननाथ ने हँसकर कहा---हाँ, आज परीक्षा है। आशा तो है कि स्पीच बुरी न होगी।

११९