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प्रतिज्ञा


पूर्णा ने गम्भीर भाव से कहा—समय आयेगा, तो वह भी हो जाएगा बहन! अभी तो स्त्री की रक्षा मर्द ही करता है।

सुमित्रा—हमीं ने मर्दों की खुशामद करके उन्हें सिर चढ़ा दिया है।

पूर्णा—ये सारी बातें तभी तक हैं, जब तक पति-देव रूठे हुए हैं। अभी आकर गले लगा लें, तो पैर चूमने लगोगी।

सुमित्रा—कौन, मैं? मैंने हमेशा फटकार बताई है, तभी तो मुझसे लाला की कोर दबती है। वह एक-एक कौड़ी दांतों से पकड़ते हैं और मुझसे जो कुछ ख़र्च करते बनता है, करती हूँ। उनसे माँगती नहीं। इस पर और भी जलते हैं। आज ही गंगास्नान करने जाऊँगी। यह मानी हुई बात है कि घर की बग्घी न मिलेगी। वह मेरे लिए खाली नहीं रहती। किराए की बग्घी पर जाऊँगी। चार रुपए से कम न ख़र्च होंगे, देखना कैसे जामे से बाहर होते हैं।

इतने में कहार ने आकर कहा—बहूजी, बाबूजी ने रेशमी अचकन माँगी है।

सुमित्रा ने तिनककर कहा—जाकर कह दे, जहाँ रखी हो ढूँढ़कर ले जायँ। यहाँ कोई उनकी लौंडी नहीं है। बाहर बैठे-बैठे नवाबों की तरह हुक्म जमाने चले हैं।

कहार ने हाथ जोड़कर कहा—सरकार, निकालके दे दें, नाही हमार कुन्दी होय लागी, चमड़ी उधेड़ लेहैं।

सुमित्रा—तेरी तक़दीर में लात खाना खिखा है, जाकर तू लात खा। तू तो मर्द है, क्या तुझे भी और कहीं काम नहीं मिलता?

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