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प्रतिज्ञा

लिया और द्वार बन्द करता हुआ बोला---हाँ, अब कहो क्या कहती हो? सुमित्रा ने तुम्हें कुछ कहा है?

पूर्णा द्वार से चिमटी हुई बोली--पहले द्वार खोल दो तो मैं बताऊँ। क्यों व्यर्थ मेरा जीवन नष्ट कर रहे हो।

'खोल दूँगा; ऐसी जल्दी क्या है? पानी में भींग तो नहीं रही हो, या मैं कोई हौआ हूँ? अगर सुमित्रा ने तुम्हें कुछ कहा है तो मैं ईश्वर की क़सम खाकर कहता हूँ, कल ही उसे घर से निकाल बाहर करूँगा और फिर कभी मुँह न देखूँगा। देखो पूर्णा, अगर तुमने द्वार खोला तो पछताओगी। छाती में छुरी मार लूँगा। सच कहता हूँ, छाती में छुरी मार लूँगा। छः महीने हुए, जब मैंने तुम्हें पहले-पहल देखा। तब से मेरे चित्त की जो दशा हो रही है वह तुम नहीं जान सकतीं। इतने दिनों किसी-किसी तरह सब्र किया; पर अब सब्र नहीं होता। ख़ैर, जब-तब दर्शन हो जाते थे, जिससे हृदय को कुछ ढाढ़स होता था; अब तुम यहाँ से जाने की बात कहती हो। तुम्हारा यहाँ से जाना मेरे शरीर से प्राणों का जाना है। मैं तुम्हें रोक नहीं सकता--तुम्हें रोकने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। संसार विवाह के स्वाँग को तो सोलहों आने अधिकार दे देता है; पर प्रेम को, जो ईश्वर का स्वरूप है, रत्ती भर भी अधिकार नहीं देता। जाओ, मगर कल ही सुनोगी कि कमला इस संसार से कूच कर गया।'

पूर्णा का निष्कपट हृदय इस प्रेम-प्रदर्शन से घोर असमञ्जस में पड़ गया। उसका एक हाथ किवाड़ को चटख़नी पर था। वह आप ही आप चटखनी के पास से हट गया। वह स्वयं एक क़दम आगे

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