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प्रतिज्ञा

दान॰---तुम तो चलती ही नहीं, मुझे अकेले जाने को कहती हो।

प्रेमा---मेरा जाना मुश्किल है। खर्च कितना बढ़ जायगा। फिर मैं तो भली-चङ्गी हूँ। जिसके लिए अपना घर ही पहाड़ हो रहा हो, वह पहाड़ पर क्या करने जाय?

दान॰---तो मुझे ही क्या हुआ है, अच्छा खासा गैंडा बना हुआ हूँ। इतना तैयार तो मैं कभी न था।

प्रेमा---जरा आइने में सूरत देखो!

दान॰---सूरत तो कम से कम सौ बार रोज़ देखता हूँ। मुझे तो कोई फर्क नहीं नज़र आता।

प्रेमा---नहीं, दिल्लगी नहीं, तुम इधर बहुत दुबले हो गये हो। तुम्हें ख़ुद कमजोरी मालूम होती होगी, नहीं तुम भला छुट्टी लेते। छुट्टियों में तो तुमसे कॉलेज गये बिना रहा न जाता था, तुम भला छुट्टी लेते। तीन महीने तुम कोई काम मत करो---न पढ़ो, न लिखो। बस खूब घूमो और आराम से रहो। इन तीन महीनों के लिए मुझे अपना डॉक्टर बना लो। मैं जिस तरह रखूँ, उस तरह रहो।

दान॰---ना भैया, तुम मुझे खिला-खिलाकर कोतल बना दोगी।

प्रेमा से आज तक दाननाथ ने एक बार भी अपनी बदनामी की चर्चा न की थी। जब एक बार निश्चय कर लिया कि अपनी ख्याति और मर्यादा को उसकी इच्छा पर बलिदान कर देंगे, तो फिर उससे अपनी मर्म-वेदना क्या कहते। अन्दर ही अन्दर घुटते रहते थे। लोक-प्रशंसा प्रायः सभी को प्रिय होती है। दाननाथ के लिए यह जीवन का आधार थी; नक्कू बनकर जीने से मर जाना उन्हें कहीं सुसाध्य था।

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