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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६०

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%3D . थो तर माया उसके पराक्रम प्रतीक इन्द्र को कर्मदायिनी शपिन थी। (इद्रो मायामि पुररुप ईयते-ऋक् ६-४७-१८) इतिहास । मलिन पार म उन्ही मार्यो के वशयगे द्वारा माया आवरण मोर प्रत्याय मात्र मान ली गई। सुतराम बाय विचारधारा का गतिमय दर्शन-- उमका क्रियामय रूप अब निष्क्रियता का स्तूप बन गया। इस प्रसग म प्रमाद-वाङ्गमय को प्रारम्भिक उठान अथवा प्रजभाषा वाल म हो भावी युग बी, लोग वेदना को, और विश्वमागत्य की सशक्त पुार मिलता है। ऐसो ब्रह्म रेइ करिहैं जो नहिं वह्त सुनत नाहिं जो कछु जो जन पोर न हार है। दान क्रियामय रह पर ही गति ममन्त्रित और जीवन्त रह सस्ता है। इसरिये भारतीय परम्पग म दशन मूलन जोवन-व्यवहार की गतिमया सत्ता के अथ प्रतिष्ठिन हुआ न मि जोवन से पृथन पेशल आदश-परा और दुष्पापणीय एक सिद्धान्त निन्दु अथा वाग्विाम मात्र । उसे ज्ञान स्प म मानने के साथ ही क्रियात्मा भी मानना ही हागा अन्यथा स्थिरमगल शिव से उसकी स्प दशक्ति को पृथव पर भर की उपासना बग्ने र अय ही क्या? प्रत्यभिज्ञा की धुरी महाकाल शिव उम्तुत कोई आकार कल्प वान वा कपना तरु का फल, जलाक्षतापास्य जटाभम्म क्लापो परिमित विग्रह नहीं। उस महबर की तात्विक व्याख्या मे भास्कररण्ठ कहते हैं-महेश्वर नानक्रियास्पमहैश्ययुक्त , सिद्ध -स्वयमिद्धनिजात्मरूपतया स्थित , न तु बहि साधनीयतया स्थित भगति, सिद्धा हि व्यवहारसमये पि तत्वाग्णस्मतिमगन्धादिमूलभूतयोजव ज्ञानक्रियाशक्तियुवतपरप्रमातृ- रूपातरतत्वमेव महेश्वरतया जााते न तु वहि कमपि भस्मादिभूपित मूढोपासनामानाथ कपित परिमित दवावशेषम् । ( ईश्वरप्रत्यभिज्ञा निमशिनो ज्ञानापियार ८ आह्निक- भास्करी)। प्रत्यभिज्ञा क्या है ? विस्मृत अविज्ञात का ज्ञात अभिज्ञा है जिसे तथागत-बुद्ध दिव्य ज्ञान के अथ मे रेते हैं विन्तु अनन्तर भी वहाँ सवाचि पानो रोप रह जाती है। पुराज्ञात विन्तु अधुरा विस्मृति की स्मृति का पुन लौटना प्रत्यभिज्ञा पदवाच्य है। जिस आवरण से ढक अभिन और विज्ञात स्वभार विस्मृत होकर भिन प्रतीत होने लगता है उस यावरण का निरास ही प्रत्यभिज्ञा है । प्रत्यभिज्ञा को तत्त्वत ग्रहण न कर सकने की दशा म उसका स्वरुप सम्प्रदाय परक और धम-मृरक मान रेन की सुविधा हा जाती है और निरपेक्षतया स्थित सवसामान्य, प्राक्कथा ॥ ६९ ॥