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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१०

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भगवान को भूमि भारत मे स्त्रियो पर तथा मनुष्यो का पतित बनाकर वडा अन्याय हो रहा है। करोडो मनुष्य जगतो म अभो पशु जीवन बिता रहे हैं। स्त्रियां विषय पर जाने के लिए बाध्य की जाती हैं, तुमको उनका पक्ष लेना पडेगा। उठो! (ककाल, पृ० १११)। "हिन्दुओ मे पारस्परिक तनिक भी सहानुभूति नही। मैं जल उठा। मनुष्य, मनुष्य के दुख-सुख से सौदा करने लगता है और उसका मापदण्ड बन जाता है रुपया। आप देखते नही कि हिन्दू की छोटी-सी गृहस्पो में कूड़ाकरकट तक जुटा रखने की चाल है, और उन पर प्राण से बढ़ कर माह । दसपांच गहने, दो-चार बर्तन, उनको बोसो वार बन्धक करना और घर मे कलह करना, यही हिन्दू घरो मे आये दिन के दृश्य हैं । जीवन का जैसे कोई लक्ष्य नहो ! पद दलित रहते-रहते उनको सामूहिक चेतना जैसे नष्ट हो गयो है।' (तितली, पृ०४७)। मुझे धीरे-धीरे विश्वास हो चला है कि भारतीय सम्मिलित कुटुम्ब को योजना की कडियो चूर-चूर हो रही हैं। वह बार्षिक संगठन अब नही रहा, जिसमे कुल का एक प्रमुख सबके मस्तिष्क का संचालन करता हुआ रुचि की समता का भार ठीक रखता था। मैने जा अध्ययन किया है, उसके बात पर इतना तो कहा जा सकता है कि हिन्दू समाज की बहुत-सो दुर्वसताएं इस विचरी कानून के कारण हैं। क्या इनका पुननिर्माण नहीं हो सकता । प्रत्येक प्राणी, अपनी व्यक्तिगत चेतना का उदय होन पर, एक कुटुम्ब म रहने के कारण अपने को प्रतिकूल परिस्थिति म देखता है । इसलिए सम्मिलित कुटुम्ब का जीवन दुखदायी हो रहा है। (तितली, ८७)। सर्व साधारण आर्यों में अहिंसा, अनात्म और अनित्यता के नाम पर जो कायरता, विश्वास का अभाव और निराशा का प्रचार हो रहा है उसके स्थान पर उत्साह, साहस और आत्मविश्वास की प्रतिष्ठा करनी होगी। "हम सच ही निर्वीय हो रहे हैं।" हाँ ! मैं इसलिए प्रयत्न करूंगा कि इनकी वाणी शुद्ध, आत्मा निर्मल और शरीर स्वस्थ हो। (इरावती, पृ० ३१)। इन उद्धरणो का चयन इस इस उद्देश्य से भी किया गया है कि हमे उस मूल उत्प्रेरक का भी ज्ञान हो सके या उस ज्ञानात्मक संवेदना तक हम पहुँच सके हैं, जो प्रसाद के उपन्यासो का विषय रही है। यही मूल वेदना है जिसे प्रसाद जो 'यथार्थवाद का मूल भाव' समझते हैं। १४ प्रसाद वाङमय