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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१०४

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का मत था कि कुछ दिन गाकुल मे चलकर रहा जाय--कृष्णचद्र को वाललीला से अलकृत भूमि म रहकर हृदय आनन्दपूर्ण बनाया जाय । किशोरी भी सहमत थी, किन्तु विजय को इसम कुछ आपत्ति थी। ___ इसी समय एक ब्रह्मचारी ने भीतर आकर सबको प्रणाम किया। विजय चकित हा गया, और निरजन प्रसन्न । क्या उन ब्रह्मचारियो के साथ तुम्ही घूमत हो मगल । --विजय न आश्चर्य भरी प्रसनता से पूछा। हाँ विजय वाव । मैंन यहाँ पर एक ऋपिकुल खोल रक्खा है। यह मुनकर कि आप लाग यहाँ आये , मैं कुछ भिक्षा लेने आया हूँ। ____ मगल ! मैंने तो समझा था कि तुमन कही अध्यापन का काम आरभ किया होगा, पर तुमने तो यह अच्छा ढोग निकाला। ___वही ता करता हूँ विजय वावू । पढाता ही तो हूँ। कुछ करन की प्रवृत्ति तो थी ही-वह भी समाज-सेवा और सुधार, परन्तु उन्हे क्रियात्मक रूप दन के लिए मेर पास आर कौन साधन था ? एसे काम तो आयसमाज करता हा था, फिर उसक जाड म अभिनय करन की क्या आवश्यकता थी । उमी म सम्मिलित हो जाते । आयसमाज कुछ खण्डनात्मक है, और मैं प्राचीन धर्म की सीमा के भीतर ही मुधार का पक्षपाती हूँ। यह क्या नहीं कहते कि तुम समाज के स्पष्ट आदश वा अनुकरण करन म जसमर्थ थे, परीक्षा में ठहर न सके थे। उस विधि-मूलक व्यावहारिक धर्म को तुम्हार समझ-बूझकर चलने वाले सर्वतोभद्र हृदय ने स्वीकार न किया, और तुम स्वयं प्राचीन निषेधात्मक धर्म से प्रचारप बन गये । कुछ बातो के न करने स हो यह प्राचीन धर्म सम्पादित हो जाता है--(ओ मत,खाओ मत, ब्याहो मत, इत्यादिइत्यादि । कुछ भी दायित्व लना नही चाहत,और वात-बात मे शास्त्र तुम्हारे प्रमाणस्वरूप हैं । बुद्धिवाद का कोई उपाय नही । -कहते-कहते विजय हंस पड़ा । ____ मगल की सौम्य आकृति तन गई। वह सयत और मधुर भाषा म कहत लगा-विजय वाबू, यह और कुछ नही केवल उच्छु खलता है । आत्मशासन का अभाव-चरित्र को दुर्बलता, विद्रोह कराती है। धर्म मानवीय स्वभाव पर शासन करता है, न कर सके तो मनुष्य और पशु मे भेद क्या रह जाय ? आपका मत यह है कि समाज की आवश्यकता देखकर धर्म की व्यवस्था बनाइ जाय, नही तो हम उसे न मानेगे ! पर समाज तो प्रवृत्तिमूलक है। वह अधिक-सेअधिक आध्यात्मिक बनाकर, तप और त्याग के द्वारा शुद्ध करके उच्च आदर्श ७४ प्रसाद वाङ्मय