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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/११६

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सामान इक्को पर धरा जान लगा। किशारी और निरजन तांग पर जा बैठे। विजय चुपचाप बैठा रहा, उठा नही । जब यमुना भी वाहर निकलने लगी, नव उससे न रहा गया विजय न पूछा-यमुना। तुम भी मुझे छोड कर चली जाती हो । पर यमुना कुछ न बाली। वह दूसरी ओर चली, तागे और इक्क स्टेशन की आग । विजय चुपचाप बैठा रहा । उसन दखा कि वह स्वय निवासित है। किशोरी का स्मरण करके एक बार उसका हृदय मातृस्नह स उमड आया, उसकी इच्छा हुई कि वह भी स्टेशन की राह पकड, पर आत्माभिमान न राक दिया । उसक सामन किशोरी को मातृमूर्ति विकृत हो उठी । वह साचन लगा - माँ मुझे पुत्र क नात कुछ भी नहा समझती मुये भी अपने स्वार्थ गौरव और अधिकार-दम्भ के भीतर ही दखना चाहती है। सतान-स्नह हाता, ता या ही मुझे छोडकर चली जाती । वह स्तब्ध बेठा रहा । फिर कुछ विचार कर अपना भी सामान बाँधन लगा दो-तीन वेग और वण्डल हुए। उसन एक ताँगवाले का रोककर उस पर अपना सामान रख दिया, स्वय भी चढ गया और उस मथुरा की ओर चलन क लिए कह दिया। विजय का सिर सन-सन कर रहा था। तागा अपनी राह पर चल रहा था पर विजय का मालूम होता था कि हम बैठे है और पटरी पर क घर आर वृक्ष सब हमस घृणा करत हुए पीछे भाग रह है। अकस्मात् उसके कान म एक गीत का अश मुनाई पडा मे कौन जतन से खोलू !' उसने तागवाले का रुकन क लिए कहा । घण्टी गाती जा रही थी। अंधेरा हो चना था। विजय न पुकारा- घण्टी । घण्टी तॉग के पास चली आई । उसन पूछा- कहा विजय वाबू ? सब लोग बनारस लौट गये । मै अकेला मथुरा जा रहा हूँ। अच्छा हुआ, तुमस भट हो गई। अहा विजय बाबू 1 मथुरा ता मै भी चलन का थी, पर कल आऊंगी । तो आज ही क्यो नही चलती ? बैठ जाओ, ताग पर जगह तो है -इतना वहत हुए विजय ने बैग तांगेवाले के बगल म रख दिया घण्टो पास जाकर बैठ गई। ५६ प्रसाद वाडमय