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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१२२

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दना चाहती थी। वह अपनी काठरी, जा बंगले से हटकर उसी बाग म थाडी दूर पर थी, साफ करन लगी । घण्टी दालान म वेठी हुई थी। सरला न आकर विजय स पूछा-भाजन तो करियगा, मै बनाऊँ ? विजय न कहा-आपकी वडी कृपा है। मुझे काई सकोच नही। आपका स्नह जेडकर जान का साहस मुझम नहीं । इधर सरला का बहुत दिना पर दा अतिथि मिल । दूसर दिन प्रभात की किरणो न जव विजय की काठरी म प्रवेश किया, तब सरला भी विजय को दख रही थी। वह सोच रही थी-~-यह भी क्सिी मा का पुत्र है—अहा ! कस स्नह की सम्मत्ति हे । दुलार स यह डाटा नही गया, अब अपन मन का हा गया । विजय की आख खुली। अभी सिर म पीडा थी। उसन तकिय म सिर उठाकर देखा--सरला का वात्सल्यपूर्ण मुख । उसने नमस्कार किया। बाथम वायु-सवन कर लीटा आ रहा था। उसन भी पूछा--विजय बाबू, अब पाडा ता नही है? जव वैसी ता नही है इस कृपा के लिए धन्यवाद । धन्यवाद की आवश्यकता नही । हाथ मुह धोकर आइए, तो कुछ दिखाऊंगा। आपकी आकृति स प्रकट ह कि हृदय म कला-सम्बन्धी सुरुचि है | ---वाथम न कहा। म अभी जाता हूँ-कहता हुआ विजय काठरी व बाहर चला आया। सरला न कहा -दखा इसी कोठरी क दूसर भाग म सव सामान मिलगा । झटपट चाय क समय स आ जाआ। -विजय उधर गया । पीपल क वृक्ष क नीच मज पर एक फूलदान रखा है। उसम आठ-दस गुलाव क फूल लगे है। बाथम लतिका, घण्टी और विजय वैठे है। रामदास चाय ल आया । सब लोगा न चाय पीकर बात आरम्भ की । विजय और घण्टो क सवय म प्रश्न हुए, और उनका चलता हुआ उतर मिला-विजय काशी का एक धनी युवक है और घण्टी उसकी मित्र है । यहाँ दाना घूमन फिरन आय है। वाथम एक पक्का दुकानदार था। उसन मन म विचारा कि, मुझ इसस क्या सम्भव हे कि य कुछ चिन खरीद ले, परन्तु लतिका का घण्टी की आर दखकर जाश्चय हुआ, उसने पूछा-क्या आप लाग हिन्दू है ? विजय न कहा—इसम भी कोई सदह हे २ सरला दूर खडी इन लोगो की बात सुन रहा यो। उसका एक प्रकार की ___६२. प्रसाद वाडमय