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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१४१

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उत्सव का समाराह था। गास्वामीजी व्यासपीठ पर बैठे थे । व्याख्यान प्रारम्भ होने ही वाला था उसी समय साहवी ठाट से घण्टी को साथ लिए विजय सभा में आया । आज यमुना दुखी होकर और मगल ज्वर में, अपने अपन कक्ष में पड़े थे । विजय सनद्ध था--गोस्वामीजी का विरोध करने की प्रतिज्ञा अवहेलना और परिहास उसकी आत्रति से प्रकट थे । गाल्वामीजी सरन भाव से कहन लगे उस समय आर्यावर्त म एकतन्त्र शासन का प्रचण्ड ताण्डव चन रहा था । मृदूर सौराष्ट म श्रीकृष्ण क साथ यादव अपन लोकतन्त्र की रक्षा में लगे थे । यद्यपि सम्पन्न यादवो की विलासिता और पड्यन्त्रो म गोपाल को भी कठि नाइयाँ झेलनी पडी, फिर भी उन्हान भुधर्मा सम्मान की रक्षा की । पाञ्चाल म कृष्णा का स्वयम्बर था । कृष्ण के बल पर पाण्डव उममे अपना वन-विक्रम लेकर प्रकट हुए। पराभूत हाकर कौरवा न भी उन्ह इन्द्रप्रस्थ दिया । कृष्ण ने धर्म-राज्य स्थापना का दृढ सकल्प किया था लत आततायिया के दमन की आवश्यक्ता दी। मागध जरासन्ध माग गया। सम्पूर्ण भारत म पाण्डवा की वृष्ण की मरक्षता म धाक जम गई। नृशम यज्ञो की समाप्ति हुई । बन्दी राजवर्ग तथा वनिपशु मुक्त हाले ही कृष्ण की शरण हुए। महान् हप के साथ राजभूय हुजा । वह था राजमय । राजे महाराजे कांप उठे । अत्याचारी गासका वा शीतज्वर हुआ। सब उस धमगज वी प्रतिष्ठा म साधारण कमकारा के भमान नतमस्तक हाकर काम करत रहे । और भी एक बात हुई-आर्यावर्त न उमी निवामित गोपाल को आश्चय स दखा, समवेत महाजना म अग्रपूजा और अध्य का अधिकारा | इतना बडा परिवतन । सव दांतो-तर उंगली दाव हुए दखत रह । उमो दिन भारत न स्वीकार किया---गापान पुरुपातम है। प्रमाद में युधिष्ठिर ने धमसाम्राज्य का अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझ ली, इस दुच नियो का मनारथ सफर हुआ-धर्मराज विशृङ्खल हुआ, परन्तु पुरपात्तम न उसका जैस उतार दिया, वह तुम नागा न मुना हा~-महाभारत की युद्ध ककाल १०६