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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१५

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के ठीक वि रोत है। इसमे समो दुष्ट परित्र तहसीलदार, चौबेजी, वेश्या मैना और महथ जी एक साथ मारे जाते हैं। पुजारो मरते तो नही परन्तु मृततुल्य अवश्य हो जाते हैं। तितलो मे सत्य की अन्तत विजय होती है और ककाल में सत्य को पराजय । १८२६ और १६३४ ई० का यह परिवर्तन राष्ट्रीय स्वतत्रता सघर्ष के आन्दोलन के निराशा और आशा से व्याख्यायित किया जा सकता है। यद्यपि सेवा और मानवता का कल्याण, 'राम, कृष्ण' और महात्मा बुद्ध की आर्य सस्कृति-प्रसाद ने ईसा मसीह को भी आर्य संस्कृति से हो सम्बद्ध माना है-का प्रचार एक प्रकार से ककाल का प्रमुख उपदेश और विकल्प है । परन्तु तितली म आर्य संस्कृति का यह विकल्प एक प्रकार के सामाजीकरण का परिणाम है। ककाल मे भारत सघ की स्थापना का आश्रमवादी दृष्टिकोण है परतु इस दृष्टिकाण से प्रसाद सतुष्ट नहीं लगते। उन्हें यह हल या उत्तर सही नहीं लगता है क्योकि निरजनदव, जमुना और विजय का ककाल इस पर अतिम टिप्पणी करत हैं । यह टिप्पणा 'व्यक्तिगत पवित्रता' को अधिक महत्त्व देती है। मठीकरण और संस्थानीकरण के विरुद्ध विजय क तर्क और यमुना, गाता, लतिका और घटी का पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था के प्रति अविश्वास, उपन्यास मे कई प्रकार के प्रश्न और जिज्ञासायें अनुत्तरित छोड जाता है, जो उपन्यास को प्रसाद की समय की सीमा के वावजूद अपने समय का मरी राय मे अधिक महत्वपूर्ण उपन्याम बना देता है। हो सकता है विजय का ककाल 'गोदान' को रचना के मूल म रहा हा । सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि सारे संस्थानो अन्धविश्वासा, कपटाचरण और भेदभाव के प्रति प्रश्नचिह्न लगाने वाला विजय केवल नाराज नवयुवक नहीं है उस प्रसाद ने प्राय 'नये' से सम्बोधित किया है और यह सम्बोधन सवेदना क उस स्वरूप को व्यक्त करता है जो बाद में हिन्दी के उपन्यासो मे व्यक्त हुआ। चित्रलखा (१९३४) त्यागपत्र और शेखर एक जीवनी (१९४२) को प्रमुख समस्याएं ककाल में विद्यमान हैं। ककात एक प्रकार से पाप और पुण्य की समस्या का उपयास है और चित्रलेखा भी। आचाय शुक्ल ने अपने इतिहास में जीवन के मूलभूत प्रश्नो के रूप म उपन्यास के अन्तर्गत पाप और पुण्य की समस्या को प्रमुख माना है। परन्तु उदाहरण उन्होंने चित्रलेखा का दिया है । ककाल का निष्कर्ष ही चित्रलेखा का भी निष्वप है । ककाल कुछ कर्मों को पाप और कुछ कर्मों को पुण्य कहने को धार्मिक रूढि और ढाग का हो निरन्तर विरोधी है । वह स्वतंत्र वैयक्तिक विकास और समता दोनो को मूल्य मानता है । विजय, यमुना, लतिका, घटी, निरजनदेव और कृष्णशरण 'पापबोध' की इस चेतना प्राक्कथन १६