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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१७२

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तमोली ने टट्टर के पास ही भीतर, दरी बिछा दी थी। मिरजा चुपचाप सामने पूले हुए कमलो को देखते थे। ईख की सिंचाई के पुरवट के शब्द दूर स उस निस्तब्धता को भग कर दते थे। पवन की गरमी से टट्टर वन्द र दन पर भी उस मरपत की झंझरो स बाहर का दृश्य दिखलाई पडता था । ढालुवी भूमि में तकिये की आवश्यकता न थी। पास ही आम के नीचे कम्बल विछाकर दो सेपका के माथ सोमदेव वैठा था। मन म सोच रहा था—यह मब रुपये की सनक है। ताल के किनारे, पत्थर की शिला पर, महुए को छाया म, एक किशोरी और एक खसखसी दाढीवाला मनुष्य, लम्बी सारगी लिय, विश्राम कर रहे थे। वालिका की वयस चौदह से ऊपर नही, पुरुप पचास के समीप । वह देखने म मुसलमान जान पडता था। दिहाती दृढता उसके अग-अग से झलकती थी। घुटना तक हाथ-पैर धो, मुंह पोछकर एक बार अपने में आकर उसन आंख फाडकर देखा-उसने कहा-शवनम | देखो, यहाँ काई अमीर टिका मालूम पडता है । ठढी हा चुकी हो, ता चला वेटो | कुछ मिल जाय तो अचरज नहीं । ____ शबनम वस्त्र संवारने लगी, उसकी सिकुडन छुडाकर अपनी वेशभूषा को ठीक कर लिया। आभूषणो में दा-चार कांच की चूड़ियाँ और नाक म नथ, जिसम मोती लटककर अपनी फांसी छुडाने के लिए छटपटाता था । टट्टर के पास पहुँच गय । मिरजा ने देखा-बालिका की वेशभूषा म काई विशपता नही, परन्तु परिष्कार था। उसके पास कुछ नही था–वसन, अलकार या भादो की भरी हुई नदी-सा यौवन । कुछ नही, थी केवल दो-तीन क्लामयी मुख-रेखाएँ -जो आगामी सौन्दर्य की बाह्य रेखाय थी, जिनमें यौवन का रंग भरना कामदेव ने अभी बाकी रख छोडा था। कई दिन का पहना हुआ वसन भी मलिन हो चला था, पर कौमार्य म उज्ज्वलता थी । और यह क्या |---सूर्य कपाला मे दोदो तीन-तीन लाल मुहाँसे । तारुण्य जैसे अभिव्यक्ति का भूखा था, 'अभाव अभाव ।' --कहकर जैसे कोई उसकी सुरमई आँखा में पुकार उठता था। मिरजा कुछ सिर उठाकर झंझरी से देखने लगा। सरकार | कुछ सुनाऊँ ?... दाढीवाले ने हाथ जोडकर कहा। सोमदेव ने बिगडकर कहा-जाओ अभी सरकार विश्राम कर रहे हैं। तो हम लोग भी बैठ जाते हैं, आज तो पेट भर जायगा-कहकर वह सारगी वाला वहाँ की भूमि झाडने लगा। झुझलाकर सोमदेव ने कहा-तुम भी एक विलक्षण मूर्ख हो । कह दिया न, जाओ। १४४ प्रसाद वाङ्मय