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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१९४

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मै खोजती थी आकाश म । ईसा को जननी स पूछतो था। इतना खोजन की क्या आवश्यकता ? कही ता नही, वह दो कितनो चिनगारी निकल रही है । सब एक-एक प्राणी है, चमकना, फिर लोप हो जाना | किसी क वुझन म रोना है और किसी के जल उठने म हँसी । हा-हा-हा-हा । तब तो बालक और भी डरा । वह अस्त था, उम भी शका होन लगी कि यह पगली ता नही है । वह हत्बुद्धि-सा इधर-उधर दख रहा था। दौड कर भाग जान का साहस भी न था । अभी तक उसकी गाडी पगली लिये थी । दूर से एक स्त्री और पुरुष, यह घटना कुतूहल से दखत चल आ रहे थे । उन्हान बालक को विपत्ति म पडा दखकर सहायता करने की इच्छा का । पास आकर पुरुप न कहा -यो जी, तुम पागल तो नही हो । क्या इस लडके को तग कर रही हो? तग कर रही हूँ। पूजा कर रही हूँ पूजा | राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा की सरलता की पूजा कर रही हूँ। इन्हे रुला दन से इनकी एक कसरत हा जाती है, फिर हँसा दूगी । और, तुम तो कभी भी जो खोलकर न हँस सकाग और न रा सकोगे। बालक का कुछ साहस हो चला था। वह अपना महायक दखकर बाल उठा-मेरी गाडी छान ली है । पगली न पुचकारते हुए कहा-~-चित्र लागे ?-- दखो पश्चिम म सध्या केसा अपना रगीन चित्र फलाय बैठी है । —पगली के साथ ही और उन तीना न भी देखा । पुरुष न कहा-मुझसे बाते करा, उस बालक को जाने दा । पगली हंस पड़ी। वह बोली-तुमसे वात 1 बाता का कहाँ अवकाश । चालबाजिया से कहा अवसर । उँह देखा उधर काले पत्थरा की एक पहाडी, उसके बाद एक लहराती हुई झील, फिर नारगी रग की एक जनती हुइ पहाडी-जैसे उसकी ज्वाला ठढी नहीं होती। फिर एक सुनहला मैदान |-- वहाँ चलोगे? उधर दखन म सब विवाद वन्द हा गया, वालक भी चुप था। उस स्त्री और पुरुष ने भी निसर्ग-स्मरणीय दृश्य देखा। पगली मकेत करनेवाला हाथ फैलाये अभी तक वैसे ही खडी यी । पुरुष ने देखा, उसका सुन्दर शरीर कृश हो गया था और बडी-बडी ऑखे क्षुधा स व्याकुल थी। जान वह कव से अनाहार का कष्ट उठा रही थी । साथवाली स्त्री स पुरुष ने कहा-किशारी । इस कुछ खिलाओ। किभारी उस बालक को देख रही थी, अव श्रीचन्द्र का ध्यान भी उसकी ओर गया। वह बालक उस पगली की उन्मत्त क्रीडा से रक्षा पान की आशा मे विश्वासपूर्ण नेत्रो स, इन्ही दाना की ओर दख रहा था। श्रीचन्द्र न उस गाद में उठात हुए कहा-चलो तुम्हे गाडी दिला दूं । १६६ प्रसाद वाडमय